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था। जालपा उससे इन जमघटों को रोज चर्चा करती। उसका स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।

एक दिन इस भण्डली को सिनेमा देखने की धुन सबार हुई। वहाँ की वहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गया। फिर तो आये दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता? अब हाथ में पैसे आने लगे थे; उस पर जालग का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता ? सिनेमा-गृह में ऐसी कितनी ही रमरिणयां मिलतीं, जो मुंह खोले निःसंकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुँह खोल लेती; मगर संकोचवश परदे वाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती।उसको कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आखिर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है ? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल, फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे? रमा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा स्नान कराने लिया जाता तो पण्डों तक से न बोलने देता। कभी माता को हँसो मर्दाने में सुनाई देती; तो पाकर बिगड़ता-तुमको जरा भी शर्म नहीं है, अम्मा! बाहर लोग बैठे हुए हैं,और तुम हँस रही हो। मां लज्जित हो जाती थी। किन्तु अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूपछटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा रूपहोन, कालीकलूटी, फूहड़ होती तो वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ 'धूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा जैसी अनन्य सुन्दरी के साथ सैर करने में मानन्द के साथ गौरव भी तो था। वहाँ के सभ्य समाज की कोई महिला रूप, गठन और शृङ्गार में जालपा की बराबरी न कर सकती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गयी थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आयी है। थोड़ी-सी कमी अंगरेजी शिक्षा की थी। उसे भी रमा पूरी किये देता था।

मगर पर्दे का यह बन्धन टूटे कैसे ? भवन में रमा के कितने ही मित्र,

ग़बन
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