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जब दोनों प्रारसी वहाँ से लौटे, तो रमा ने चिन्तित स्वर में कहा-तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा ?

जालपा-क्या करती ? इंकार करते भी तो न बनता था।

रमा०—तो सबेरे तुम्हारे लिए अच्छी-सी साड़ी ला दूँ ?

जालपा-क्या मेरे पास साड़ी नहीं है ? जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा!

रमा०- तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहाँ है इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊँगा।

जालपा ने विवशता के भाव से कहा-मुझे साफ़ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।

रमा०-फिर इनकी दावत भी तो करनी पड़ेगी।

जालपा-यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।

रमा०-विपत्ति कुछ नहीं है, सिर्फ यही खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुर्सियां, चाय के सेट रमेश के यहाँ से माँग लाऊँगा, लेकिन घर के लिए क्या करूं?

जालपा-क्या यह जरूरी है कि हम लोग भी दावत करें ?

रमा ने ऐसी नही बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालना के लिए एक जूते की जोड़ी और सुन्दर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गयी। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका खर्च रोज बढ़ता जाता था। अभी तक गहनेवालों को एक पैसा भी देने को नौवत न पायी थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी किया था। लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फर्ट हालों चाय पार्टी में जाये। नहीं, जालपा पर इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायेगा। सभी तो आज चमाचम साड़ियाँ पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थो; पर जालपा अपने सादे पावरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जँचती थीं। यह मेरे पूर्व कर्मों का का फल है कि मुझे ऐसी सुन्दरी मिलो। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनन्द उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे। बुढ़ापे में मान लिया, धन हुआ

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