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ही तो क्या ! यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का?साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गयी। रात भर तो उसने सन्न किया। दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया।

जालपा ने झुंझलाकर कहा- मैंने तो तुमसे कहा था, कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होंगी।

रमा०-डेढ़ सौ ! इतना फजूल-खर्च में नहीं है।

जालपा-डेढ़ सौ से कम की यह चीजें नहीं है।

जालपा ने बड़ी कलाई में बांध ली और साड़ी को खोलकर मंत्र-मुग्ध नेत्रों से देखा।

रमा०-तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है ! मेरे रुपये वसूल हो गये।

जालपा-सच बताओ, कितने रुपये खर्च हए?

रमा०- सच बता दूँ? एक सौ पैंतीस रुपये। पचहत्तर रुपये की साड़ी दस के जूते और पच्चीस की।

जालपा-यह डेढ़ सौ हो हुए, मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था मगर यह सब रुपये अदा कैसे होंगे ? उस चुडैल ने व्यर्थ ही मुझे निमंत्रण दे दिया ! अब मैं बाहर जाना ही छोड़ दूंगी।

रमा भी इसी चिन्ता में मग्न था; पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न डाली। बोला-सब पैदा हो जायेगा।

जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहा- कहाँ से अदा हो जायेगा,जरा सुनूं ? कौड़ो तो बचती नहीं, अदा कहाँ से हो जायेगा? यह तो बाबूजी घर का खर्च संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम समझते हो कि मैं गहना और साड़ियों पर मरती हूँ ? इन चीजों को लौटा आओ।

रमा ने प्रेमपूर्ण नेत्रों से कहा- इन चीजों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊँगा।

सन्ध्या समय जब जालपा ने नयी साड़ी और नये जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसका मुख-मण्डल प्रज्ज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों को लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार

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