पृष्ठ:ग़बन.pdf/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती । कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।

एक दिन दीनदयाल लौटे तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये ।

मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी । यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई।

जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता । पिता से बोली-बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए !

दीनदयाल ने मुसकराकर कहा-ला दूंगा, बेटी !

'कब ला दीजिएगा?'

'बहुत जल्द ।'

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा । उसने माता से जाकर कहा-अम्माजी, मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।

मां-वह तो बहुत रुपयों में बनेगा बेटी !

जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवाती !

मां ने मुसकराकर कहा-तेरे लिए तेरी ससुराल से आएगा।

यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना दीनदयाल के लिए, आसान न था। ऐसे कौन बड़े शोहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी । जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेगें इसमें उन्हें सन्देह था।

जालपा लजा कर भाग गयी; पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आयगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे । तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी। लेकिन ससुराल से न आए तो? उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा-तो क्या माताजी अपना हार मुझे न दे देंगी ! अवश्य दे देंगी।

इस तरह हंसते-हँसते सात वर्ष कट गए ! और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिर-संचित अभिलाषा पूरी होगी।

ग़बन