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न थी। सन्ध्या समय जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बँगले का नम्बर बतला दिया था। बँगला आसानी से मिल गया। फाटक पर साइनबोर्ड था-'इन्दुभूषणा, ऐडवोकेट, हाइकोर्ट।' अब रमा को मालूम हुआ कि वह महिला पं० इन्द्रभूषण की पत्नी थीं। पण्डितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था; पर इतने बड़े आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता। छ: महीने पहिले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन उसे उनके धर निमन्त्रित होने का गौरव प्राप्त होगा; पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गयी। वह काशी के सबसे बड़े वकील का मेहमान था।

रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरुष निमंत्रित होंगे; पर यहाँ वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था। रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आयी और उनसे हाथ मिलाकर अन्दर ले गयी, और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजो ने 'आराम कुर्सी पर लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुसकराकर कहा- क्षमा कीजिएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहाँ किसी आफिस में हैं ?

रमा ने झेंपते हुए कहा -जी हाँ, म्युनिसिपल आफिस में हूँ। अभी हाल ही में आया हूँ। कानून को तरफ़ जाने का इरादा था, पर नये वकीलों की यहाँ जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी।।

रमा ने अपना महत्व बढ़ाने के लिए जरा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा।इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, मैं पच्चीस रुपये का क्लर्क हूँ, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले—आपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं 'आये। वहाँ दो-चार साल के बाद आप अच्छी जगह पहुँच जायेंगे। यहाँ सम्भव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।

जालपा को अभी तक सन्देह हो रहा था कि रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चाँद आसपास सुफेद बालों के बीच में वारनिश को हुई लकड़ी की भाँति चमक रही थी। मूछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुरिया बतला रही थी कि

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