पृष्ठ:ग़बन.pdf/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज हो। 'हाँ, रंग गोरा था, जो साठ माल की गर्मी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊँची नाक थी, ऊँचा माथा और बड़ी-बड़ी आँखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था ! उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल रतन सांवली, सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौन्दर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था नाक चिपटी थी, मुख गोल, आँखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमुखी के सामने जूही का फूल।

चाय आयी। मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी, सब मेज़ पर सजा दिये गये। रतन मोर जालपा एक मेज पर बैठौं। दूसरी मेज़ रमा' और वकोल साहब की थी। रमा तो मेज के सामने जा बैठा, मगर वकील साहब अभी आराम कुर्सी पर लेटे हुए थे।

रमा ने मुसकराकर वकील साहब से कहा-आप भी आयें।

वकील साहब ने लेटे-लेटे मुसकराकर कहा-शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूँ।

लोगों ने चाय पी, फल खाये; पर वकील साहब के सामने हँसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिन्दादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनन्द उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे निर्जीव मनुष्य जबान भी हों तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूँट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा-चलो, हम लोग जरा बगीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का फन्दा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बन्द पक्षो की भाँति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लम्बी साँस ली। वह जानता कि यहाँ यह विपत्ति उसके सिर पर पड़ जायेगी, तो आने का नाम न लेता।

वकील साहब ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले-मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज हजम नहीं होती। दूध भी हजम नहीं होता। चाय को न जाने लोग इतने शौक से क्यों पीते है, मुझे तो इसकी

७६
ग़बन