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मेरे पति देव मेरी दशा देखकर बहुत दुःखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूँ। आज ईश्वर मुझे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जायेंगे। कितना चाहती हूँ कि दुबली हो जाऊँ, गरम पानी से टव-स्नान करती हूँ, रोज़ पैदल घूमने जाती हूँ, घी-दूध बहुत कम खाती हूँ; भोजन आधा कर दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है, करती हूँ; फिर भी दिन-दिन मोटी ही होती जाती हूँ। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूँ !

जालपा -- वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे ?

रतन -- नहीं बहन, बिलकुल नहीं, भूलकर भी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुँह से कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती; पर मैं जानती हूँ, यह चिन्ता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं है, क्या करूँ। मैं जितना चाहूँ खर्च करूँ, जैसे चाहूँ रहूँ, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ में हाथ में रख देते हैं। समझाती हूँ, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते ? पर इनसे घर पर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चापातियों से नाता है। बहुत ज़िद की तो दो-चार दाने अंगूर खा लिये। मुझे तो उन पर दया आती है। अपने से जहाँ तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूँ। आखिर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।

जालपा -- ऐसे पुरुष को देवता समझना चाहिए। यहाँ तो एक स्त्री मरी नहीं, कि दूसरा ब्याह रच गया। तीस साल अकेले रहना सब का काम नहीं है।

रतन -- हाँ बहन, है तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं। तुम्हें इनको तस्वीर दिखाऊँगी। देखने में जितने कठोर मालूम होते है, भीतर से इनका हृदय उतना ही नर्म है। कितने ही अनार्थों, विधवाओं और गरीबों के महीने बाँध रखे हैं। तुम्हारा यह कंगन तो बड़ा सुन्दर है। जालपा -- हाँ, बड़े अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।

रतन -- मैं तो यहाँ किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती। मामूली सोनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या मिला दें। मेरो सपत्नीजी के सब गहने रखे

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