पृष्ठ:ग़बन.pdf/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

हुए हैं। लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोड़ा कंगन बनवा दो।

जालपा——देखिये, पूछती हूँ,

रतन——आज तुम्हारे आने से जी बहुत खुश हुआ। दिन भर अकेली पड़ी रहती हूँ। जो घबड़ाया करता है, किसके पास जाऊँ। किसी से परिचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है उनसे मैत्री करूँ। दो एक महिलाओं को बुलाया, उनके घर गयी, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूँ लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहता थीं। मुझसे रुपए उधार ले गयी और आज तक दे रही हैं। श्रृंगार की चीजों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आध-घड़ी के लिए रोज चली आया करो बहन !

जालपा——वाह, इससे अच्छा और क्या होगा!

रतन——मैं मोटर भेज दिया करूंगी।

जालपा——क्या जरूरत है। ताँगे तो मिलते ही हैं। '

रतन——न जाने क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथ जी अपना भाग्य सराहते होंगे।

जालपा ने मुसकराकर काहा——भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियाँ जमाया करते हैं।

रतन—सच ! मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो वह भी तो आ गये। पूछना, ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।

जालपा——(रमा से) क्यों चरनदास से कहा जाय तो ऐसा कंगन कितने दिन में बना देंगे ? रतन ऐसा ही कंगन बनवाना चाहती हैं।

रमा ने तत्परता से कहा—— हाँ बना क्यों नहीं सकता ? इससे बहुत अच्छे बना सकता है।

रतन——इस जोड़े के क्या लिये थे?

जालपा——आठ सौ के थे।

रतन——कोई हरज नहीं, मगर बिल्कुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का!

रमा——हाँ-हाँ, बनवा दूंगा।

रतन——मगर भाई, अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।

ग़बन
७९