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ईश्वर मे चाहा, तो ऐसा होगा कि मेम साहब खुश हो जायेंगी ! चाय की सेट, शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस में ला दूँगा। कुर्सीया, मेजें सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न कुली की जरूरत न मजूर की। उन्हीं मूझलचंद को रगेदूंगा।

रमा०——तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिन्ता में पढ़ा हुआ था।

रमेश०——चिन्ता की कोई बात नहीं; उसी लौंडे को जोत दूँगा। कहूँगा, जगह चाहते हो, तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है!

रमा०——अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?

रमेश——अजी, अभी छ: और बाकी है। पूरे सात जीव है ! जरा बैठ जाओ, जरूरी चीजों की सूची बना ली जाये। आज ही से दौड़-धूप, होगी, तब सब चीजें जुटा सकूँगा। और कितने मेहमान होंगे?

रमा०—— मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आयें।

रमेश——यह बहुत आच्छा किया। बहुत से आदमी हो जाता। तो भम्भड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। टलुओं की खुशामद करने से क्या फायदा?

दोनों आदमियों ने सुची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनको पहुँच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी अच्छी चीजें बटोर लाये। सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीजों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहाँ रखा जाये, कौन तस्वीर कहाँ लटकाई जाये, कौन-सा गलीचा कहाँ बिछाया जाये, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में माईना कहाँ रखा जाये। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में पाईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए।रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधे में चुपचाप खड़ा था। न इनकी-सी कह सकता था, न उनकी-सी।

दया०——मैंने सैकड़ों अंगरेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं

ग़बन
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