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रतन——नहीं, मुझे तो बही पसन्द है। आप छ: सौ का बनवाइए।

उसने मोटर पर से अपनी शैली उठाकर सौ-सौ रुपये के छः नोट निकाले। रमा ने कहा——ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसान हो जाता।

रतन——मेरे पास रुपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद पाऊँ। मेरी आदत है कि जो काम करती हुँ,जल्द-से-जल्द कर डालती है। बिलम्ब से मुझे उलझन होती है।

यह कहकर वह मोटर पर बैठ गयी मोटर हवा हो गयी। रमा संदूक में रुपये रखने के लिए अन्दर चला गया, तो दोनों वृद्धजनों में बातें होने लगीं।

रमेश०——देखा ?

दया०——जी हाँ, आँखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी हना प्रा रही है। ईश्वर ही बचाये।

रमेश——बात तो ऐसी ही है; पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती है। बीमार पड़ जाओ तो डाक्टर को बुला सकती हैं, यहाँ तो चाहे हम मर जायें, तब भी क्या मजाल कि स्त्री घर से गहर पौर निकाले। दया०-हमसे तो भाई यह भ्रंगरेजियत नहीं देखी जाती। क्या करें सन्तान की ममता है, नहीं तो यही जो चाहता है कि रमा से साफ कह दूँ, भैया अपना घर अलग लेकर रहो। आँख फूटी, पीर गयी। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दना देगी।

रमेश०——महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं। यह क्यों मान लेते हो कि जो पोरत बाहर पाती जाती है, वह जरूर बिगड़ी हुई है ? मगर वह रमा को मानती बहुत है। रुपये न जाने किस लिये दिये ?

दया०——मुझे तो इसमें कुछ गोल-माल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो ?

इसी समय रमा भीतर से निकला का रहा था। अन्तिम वाक्य उसके कान में पड़ गया | मौहें चढ़ाकर बोला—— जी हाँ, जरूर चाल चल रहा हूँ। उसे धोखा देकर रुपया ऐंठ रहा है। यही तो मेरा पेशा है !

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