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मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे-बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकर थे, और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था! चाहते तो हजारों वसूल करते पर कभी एक पैसे के भी रबादार नहीं हुए। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हो; पर रिश्वत को हराम समझते थे! शायद इसलिए कि वह अपनी आँखों से इसके कुफल देख चुके थे। किसी को जेल जाते देना था, किसी को संतान से हाथ धोते; किसी को कुव्यसनों के पंजे में फँसते; उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ़ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते।

इस जमाने में ५० की भुगत ही क्या! पांच आदमियों का पालन बड़ी मुश्किल से होता था। लड़के अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहने को तरसती पर दयानाथ विचलित न होते थे! बड़ा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया-मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरुषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो। लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से बह बिलकुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर-सपाटे करता और मां और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गये। किसी का पंपशू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांध ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन में। इस मित्रों ने एक-एक कण्डा बनवा लिया, तो इस सूट बदलने का साधन हो गया। सहकारिता का यह बिल्कुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसन्द किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रुपये थे और न एक नये परिवार का भार उठाने की हिम्मत; पर जागेश्वरी ने बिना हट से

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