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पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहु-बेटियों को भारी और लज्जा-शील होना चाहिए। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गयी थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तक न की।

अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छ: सौ रुपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जायेंगे। केवल ढाई सौ रुपये और रह जायेंगे। इस नये हिसाब में छ: सौ और मिलाकर फिर साढ़े आठ सौ रुपये रह जायेंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायेगा।

दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुँचा और रोब से बोला——क्या रंग-ढंग है महाराज, कोई नयी चीज बनवायी है इधर ?

रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला——बाबू साहब, चीजें कितनी बनी और कितनी बिकीं। आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दूकानदारी हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहाँ से एक पैसा भी नहीं मिला।

रमा——भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं है, जिनसे तकाजा करना पड़े आज यह छः सौ रुपये जमा कर लो, और एक अच्छा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपये लेकर संदूक में रखे, और बोला-बन जायेंगे। बाकी रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा——बहुत जल्द।

गंगू——हाँ बाबूजी, अब पिछला हिसाब साफ कर दीजिए।

गंगू ने बहुन जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार सौदा करके उसे मालूम हो गया था कि यहाँ से जल्दी रुपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज तकाजा करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गय'।और कंगन न बने। रतन के तकाजों के डर से रमा ने पार्क जाना छोड़

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