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रमा ने दाँत पीसकर कहा- अगर यही बात थी वो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दिया ? अब तक मैंने रूपये की कोई फिक्र की होती न !

गंगू- मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।

रमा निराश होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृतान्त साफ़-साफ़ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दुःख होता, पर वह अपना कंगन उतारकर दे देती, लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयों की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था।

इसमें सन्देह नहीं कि रमा को सौ रुपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता, तो इन आठ महीनों में दोनों सराफ़ों के कम-से-कम आधे रुपये अवश्य दे देता; लेकिन ऊपर की आमदनी थी, तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर सपाटे में खर्च हो जाता था और सराफ़े का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रूका हुमा था। कौड़ियों से रुपये बनाना वाणिकों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपये की कौड़ियाँ ही बनाते हैं।

कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सराफ़े का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सराफ़ को झाँसा दूँ, पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।

रमा को रात भर नींद नहीं आयी। यदि आज उसे एक हजार का रुक्का लिखकर कोई पाँच सौ रुपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान-पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नज़र न आता था। अपने मिलनेवालों में उसने सभी से अपनी हवा बाँध रखी थी। खिलाने-पिलाने में खुले हाथ रुपया खर्च करता था। अब किस मुँह से अपनी विपत्ति कहे ? वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रुपये दिये। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पाँच दिन की मुहलत तो मिल जाती; मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती। वह तो उसी समय आती है जब हम उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे। कोई ऐसा मित्र भी नज़र नहीं आता था,जो उसके नाम पर फ़र्जी तार भेज

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