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जालापा——मैं तो जानती हूँ।

रमा——बताओ।

जालपा—— तुम बतला दो, मैं भी बतला दूँगा।

रमा——मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूँ कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।

जालपा——सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श पत्नी नहीं हूँ, इसे मैं खूब जानती हूँ। पति सेवा अब तक मैंने नाम की भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखा। फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है ? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूँ ?

रमा०——क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।

जालपा——मैं इसलिए पूछ रही हूँ कि तुम्हारे प्रेम को स्थाई बना सकूँ।

रमा०——मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमानदारी से कहता हूँ, तुम में कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आयी। लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी ? न मेरे पास धन है, न विद्या है, न रूप है। बताओ।

जालपा——बता दूं ? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूँ। अब तुमसे क्या छिपाऊँ, जब मैं यहाँ आयी तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे चिन्ता होती थी कि तुम उसे पसन्द करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है। पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूँगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में पर्दा रखते हो।

रमा——यह तुम्हारी केवल शंका है जालपा। मैं दोस्तों से भी कोई दुर्भावना नहीं करता। फिर तुम तो मेरो हुदेश्वरी हो।

जालपा——मेरी तरफ़ देखकर बोलो, आँखें नीची करना मर्दो का काम नहीं है।

ग़बन
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