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है, तो वह किसी महान से दिला देंगे, लेकिन नहीं। वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।

उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। शायद वहाँ कुछ प्रबंध हो जाय। कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर सन्तुष्ट हो जाता है; पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूँगा या नहीं ! यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं किया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब भीजान किया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक नयी बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मौजान में दो हजार लिख दूँ ? रसीद बही की जांच कौन करता है ? अगर चोरी पकड़ भी गई, तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से कि कहीं चित्त चंचल न हो जाय, उसने रसिल से अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बन्द करके इधर-उघर धूमने लगा।

इक्की-दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं है, तो सोचा जल्दी चुंगी देकर छुट्टी पा जायें। रमा ने इस कुपा के लिये दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की और गाड़ीवानों ने शौक से दो, क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीचर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था। मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बन्द हो जाती थी। दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में प्राधपाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गयी। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नयी बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर तो बैठा रहता हूँ। अगर यहाँ आकर बैठ जाऊँ तो रोज दस पांच-रुपये हाथ आ जायें ! फिर तो छः महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चाँदी न होगी, पन्द्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज पाँच रुपये मिल जायें और इतने ही दिन भर में और मिल जायें; तो पाँच छः महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊँ। उसने दराज खोलकर

ग़बन
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