पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं । उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म-द्रोण यादिकों का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐहिक सुख मिलंगा का नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नही । उन्मे यही देग्नना था कि मैं जो कर रहा हूँ बद्द 'धर्म्य' है या ' अधयं ' अथवा 'पुण्य' है या 'पाप'; और गीता का विवेचन भी इसी दृष्टि से किया गया है। केवल गीता में ही नहीं, किन्तु कई स्थानों पर महाभारत में भी कर्म-ग्रकर्म का जो विवेचन है वह पार- लौकिक अर्थात् अध्यात्म-ष्टि से ही किया गया है और वहाँ किसी भी कर्म का अच्चापन या बुरापन दिखलाने के लिये प्रायः सर्वत्र 'धर्म' और 'अधर्म' दो ही शब्दों का उपयोग किया गया है । परन्तु 'धर्म' और उसका प्रतियोगी अधर्म 'ये दोनों शब्द, अपने व्यापक अर्थ के कारण, कभी कभी श्रम उत्पन्न कर दिया करने है; इसलिये यहाँ पर इस बात की कुछ अधिक मीमांसा करना आवश्यक है कि कर्मयोगशास्त्र में इन शब्दों का उपयोग मुग्न्यतः किस अयं में किया जाता है। नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल " पारलौकिक सुख का मार्ग" इसी अर्य में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि “तेरा कौन सा धर्म है ? " तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिये किस मार्ग-वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी, या पारसी-से चलता है। और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। इसी तरह स्वर्ग-प्राप्ति के लिये साधनभूत यज्ञ-याग आदि वैदिक विपयों की मीमांसा करते समय “अथातो धर्मजिज्ञासा " श्रादि धर्मसूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवा राजधर्म, प्रजाधर्म, देशधर्म, जातिधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति बंधनों को भी 'धर्म' कहते हैं। धर्म शब्द के इन दो अयों को यदि पृथक् करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को · मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ 'मोक्ष' और न्यावहारिक धर्म अथवा केवल नीति को केवल 'धर्म' कहा करते हैं । उदाहरणार्थ, चतुर्विध पुरुषार्थी की गणना करते समय हम लोग " धर्म, अर्थ, काम, मोन" कहा करते हैं। इसके पहले शब्द धर्म में ही यदि मोक्ष का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक् पुरुषार्य बतलाने की आवश्यकता न रहती; अर्थात् यह कहना पड़ता है कि 'धर्म' पद से इस स्थान पर संसार के सैकड़ों नीतिधर्म ही शाख. कारों को आभिप्रेत हैं। उन्हों को हम लोग अाज कल कर्तव्यकर्म, नीति, नीतिधर्म अथवा सदाचरण कहते हैं । परन्तु प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में । नीति' अथवा नीतिशास्त्र' शब्दों का उपयोग विशेष करके राजनीति ही के लिये किया जाता है, इसलिये पुराने जमाने में कर्तव्यकर्म अथवा सदाचार के सामान्य विवेचन को 'नीतिप्रश्चन न कह कर 'धग्रवचन' कहा करते थे । परन्तु नीति' और 'धर्म दो शब्दों का यह पारिमापिक भेद सभी संस्कृत-ग्रन्थों में नहीं माना गया है। 6