पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२९

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20 गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कहना पड़ेगा कि सन्तान के लिये-दूसरे के लिये यह कीड़ा अपने शरीर को भी त्याग देता है। इसी तरह सजीव सृष्टि में इस कीड़े से ऊपर के दर्जे के स्त्री-पुरुषा- त्सक प्राणी भी अपनी अपनी सन्तान के पालन-पोपण के लिये स्वार्थ त्याग करने में आनन्दित हुआ करते हैं। यही गुण बढ़ते बढ़ते मनुष्यजाति के असभ्य और जंगली समाज में भी इस रूप में पाया जाता है कि लोग न केवल अपनी सन्तानों की रक्षा करने में, किंतु अपने. जाति-भाइयों की सहायता करने में भी सुख से प्रवृत्त हो जाते हैं। इसलिये मनुष्य को, जो कि सजीव सृष्टि का शिरोमणि है, स्वार्थ के समान परार्थ में भी सुख मानते हुए, सृष्टि के उपर्युक्त नियम की उन्नति करने तथा स्वार्थ और परार्य के वर्तमान विरोध को समूल नष्ट करने के उद्योग में लगे रहना चाहिये; बस इसी में उसकी इतिकर्तव्यता है । यह युक्तिवाद बहुत ठीक है । परन्तु यह तत्त्व कुछ नया नहीं है कि, परोपकार करने का सद्गुण मूक सृष्टि में भी पाया जाता है, इसलिये उसे परमावधि तक पहुँचाने के प्रयत्न में ज्ञानी मनुष्यों को सदैव लगे रहना चाहिये । इस तत्व में विशेषता सिर्फ यही है कि, आज कल आधिभौतिक शास्त्रों के ज्ञान की बहुत वृद्धि होने के कारण इस तत्व की आधिभौतिक उपपत्ति उत्तम रीति से बतलाई गई है। यद्यपि हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि प्राध्यात्मिक है, तथापि हमारे प्राचीन ग्रन्यों में कहा है कि:- अष्टादशपुराणानां सारं सारं समुद्धृतम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ " परोपकार करना पुण्यकर्म है और दूसरों को पीड़ा देना पापकर्म है; बस यही अठारह पुराणों का सार है।" भर्तृहरि ने भी कहा है कि " स्वार्थों यस्य परार्थ एव स पुमान् एकः सतां अग्रणीः " परार्थ ही को जिस मनुष्य ने अपना स्वार्थ बना लिया है वही सव सत्पुरुषों में श्रेष्ठ है। अच्छा; अव यदि छोटे कीड़ों से मनुष्य तक की, सृष्टि की उत्तरोत्तर क्रमशः बढ़ती हुई श्रेणियों को देखें- तो एक और भी प्रश्न उठता है। वह यह है-क्या मनुष्यों में केवल परोपकार-बुद्धि ही का उत्कर्ष हुआ है या, इसी के साथ, उनमें न्याय-युदि, दया, उदारता, दूर, दृष्टि, तक, शूरता, ति, क्षमा, इंद्रियनिग्रह इत्यादि अनेक अन्य सात्त्विक सदगुणों की भी वृद्धि हुई है ? जब इस पर विचार किया जाता है तव कहना पड़ता है कि अन्य सव सजीव प्राणियों की अपेक्षा मनुष्यों में सभी सद्गुणों का उत्कर्ष हुआ है। इन सव सात्त्विक गुणों के समूह को "मनुष्यत्व" नाम दीजिये । अव यह वात सिद्ध हो चुकी कि परोपकार की अपेक्षा मनुष्यत्व को हम श्रेष्ठ मानते हैं ऐसी अवस्था में किसी कर्म की योग्यता-अयोग्यता या नीतिमत्ता का निर्णय करने के लिये उस कर्म की यह उपपत्ति स्पेन्सर के Data of Ethics नामक ग्रन्थ में दी हुई है । स्पेन्सर ने मिल को एक पत्र लिख कर स्पष्ट कह दिया था कि मेरे और आपके मत में क्या भेद है । उस पत्र के अवतरण उक्त घन्य में दिये गये हैं। PP.57,123. ALSORSe Bain's Mentas and moral Science PP, 721, 722 ( Ed. 1875 ).