पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । दूसरे अध्याय में कहा गया है कि विषय-संग से काम, काम से मांध, फोध से मोह और अन्त में मनुष्य का नाश भी होजाता है (गी. २.६२, ६३)। भय यह यात सिद्ध हो गई कि जड़ सृष्टि के अचेतन फर्म स्वयं दुःर के मूल कारण नहीं है, किन्तु मनुष्य उनमें जो फलाशा, संग, काम या इया लगाये रहता है, वही यथार्थ में दुःर का मूल है। ऐसे दुःखों से बचे रहने का सहन वाय यही है कि सिर्फ विषय की फलाशा, संग, काम या भासक्ति को मनोनिगम द्वारा छोड़ देना चाहिये संन्यासमागियों के कथनानुसार सय विषयों मार को ही को, अथवा सय प्रकार की इबासा ही को, छोड़ देने की कोई भावश्यकता नहीं है। इसी लिये गीता (२.६४ ) में कहा है कि जो मनुष्य फलाशा को छोड़ कर यथाप्राप्त विपयों का निष्काम भार निस्संगमुधि से सेपन करता है, वहीं सपा स्थितप्रज्ञ है। संसार के कर्म-व्यवहार कभी रुक नहीं सकते। मनुष्य पाई इस संसार में रहे या न रहे। परन्तु प्रकृति अपने गुण-धर्मानुसार सदेव अपना व्यापार करती ही रहेगी। जद प्रकृति को न तो इसमें कुछ मुख ईमौर न दुःय। मनुष्य व्यर्थ अपनी महत्ता समझ कर प्रकृति के व्यवहार में पासक्त हो जाता, इसी लिये वह सुख-दुःख का भागी हुआ करता है। यदि वह इस मास.यदि को छोड़ दे और अपने सय व्यवहार इस भावना से फरने जगे, कि "गुणा गुगोपु वर्तन्ते " (गी.३.२८)-प्रकृति के गुणधर्मानुसार ही सब व्यापार हो रहे हैं, तो असंतोपजन्य कोई भी दुःख उसको हो ही नहीं सस्ता । इस लिये यह समझ कर, कि प्रकृति तो अपना व्यापार करती हीरहती हैं, उसके लिये संसार को दुःख- प्रधान मान कर रोते नहीं रहना चाहिये और न उसको त्यागने का प्रयत्न करना चाहिये,महाभारत (शा.२५.२६) में प्यासजी ने युधिष्टिर को यह उपदेश दिया है कि:- सुखं वा यदि वा दुःख प्रियं या यदि याऽप्रियम् । प्रातं प्राप्तमुपासीत एदयेनापराजितः। " चाहे सुख हो या दुःख, प्रिय हो अथवा भप्रिय, जो जिस समय जैसा माति हो वह उस समय पैसाही, मन को निराश न करते हुए (मर्यान् निखव यनभर अपने कर्तव्य को न छोड़ते हुए) सेवन करते रहो। " इस रपदेश का महच पूर्णतया तभी ज्ञात हो सकता है जब कि हम इस बात को ध्यान में रखें कि संसार में अनेक कर्तव्य ऐसे हैं जिन्हे दुख सह कर भी करना पड़ता है। भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ का यह लक्षण बतलाया है कि "यः सर्ववानमिस्नेहनत. प्राप्य शुभाशुभम् " (२.५७) अर्यात शुम प्रयवा अशुभ जो कुछ आपड़े, सस के बारे में जो सदा निष्काम या निस्संग रहता है और जो उसका अभिनन्दन या द्वैप कुछ भी नहीं करता वही स्थितप्रज्ञ है। फिर पाँचवें अध्याय (५.२०) में कहा है कि "न प्रहप्येत्मियं प्राप्य नोद्विजेन्माष्य चामियम् "-सुख पा कर फूल न जाना चाहिये भार दुःख से कातर मी नहीं होना चाहिये पर्व दूसरे अध्याय