पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१६४

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आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । १२५ अर्थात् अत्युच्च स्थान दिया गया है और उसके बाद करुणा, कृतज्ञता, उदारता, वात्सल्य आदि भावों को क्रमशः नीचे की श्रेणियों में शामिल किया है। इस प्रन्थकार का मत है कि, जब ऊपर और नीचे की श्रेणियों के सद्गुणों में विरोध उत्पन्न हो तब ऊपर ऊपर की श्रेणियों के सद्गुणों को ही अधिक मान देना चाहिये। उसके मत के अनुसार कार्य-कार्य का अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये इसकी अपेक्षा और कोई उचित मार्ग नहीं है । इसका कारण यह है कि, यद्यपि हम अत्यंत दूरष्टि से यह निश्चित कर लें कि 'अधिकांश लोगों का अधिक सुख किसमें है, तथापि इस न्यूनाधिक भाव में यह कहने की सत्ता या अधिकार नहीं है कि जिस बात में अधिकांश लोगों का सुख हो वही तु कर' इस लिये अंत इस प्रश का निर्णय ही नहीं होता कि 'जिसमें अधिकांश लोगों का हित है, वह यात में क्यों करूं ?' और सारा झगड़ा ज्या का त्यों बना रहता है । राजा से बिना अधिकार प्राप्त किये ही जय कोई न्यायाधीश न्याय करता है तब उसके निर्णय की जो दशा होती है, ठीक वही दशा उस कार्य-अकार्य के निर्णय की भी होती है, जो दूरयष्टिपूर्वक सुख-दुःखों का विचार करके किया जाता है । केवल दूरदृष्टि यह बात किसी से नहीं कह सकती कि 'तू यह कर, तुझे यह करना ही चाहिये।' इसका कारण यही है कि कितनी भी दूरदृष्टि हो तो भी वह मनुष्यकृत ही है, और इसी कारण वह अपना प्रभाव मनुष्यों पर नहीं जमा सकती । ऐसे समय पर भाज्ञा करनेवाला इम से श्रेष्ठ कोई अधिकारी अवश्य होना चाहिये । और, यह काम ईश्वरदत्त सदसद्विवेकबुद्धि ही कर सकती है, क्योंकि वह मनुष्य की अपेक्षा श्रेष्ठ अतएव मनुष्य पर अपना अधिकार जमाने में समर्थ है । यह सदसद्वि- वेक-युद्धि या 'देवता' स्वयंभु है, इसी कारण व्यवहार में यह कहने की रीति पड़ गई है कि मेरा ‘मनोदेव' अमुक प्रकार की गवाही नहीं देता । जब कोई मनुष्य एक-आध बुरा काम कर बैठता है तब पश्चात्ताप से यही स्वयं लजित हो जाता है और उसका मन उसे हमेशा टींचता रहता है । यह भी उपर्युक्त देवता के शासन का ही फल है। इस बात से भी स्वतंत्र मनोदेवता का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । कारण कि, आधिदैवत पंथ के मतानुसार, यदि उपर्युक्त सिद्धान्त न माना जाय तो इस प्रश्न की उपपत्ति नहीं हो सकती कि हमारा मन इमें क्यों टाँचा करता है। ऊपर दिया हुआ वृत्तान्त पश्चिमी आधिदैवत पंथ के मत का है। पश्चिमी देशों में इस पंथ का प्रचार विशेषतः ईसाई-धर्मोपदेशकों ने किया है । उनके मत के अनुसार, धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये, केवल आधिभौतिक साधनों की अपेक्षा यह ईश्वरदत्त साधन सुलभ, श्रेष्ठ एवं प्राय है । यद्यपि हमारे देश में, प्राचीन काल में, कर्मयोगशास्त्र का ऐसा कोई स्वतंत्र पंथ नहीं था, तथापि उपर्युक्त मत हमारे प्राचीन ग्रंथों में कई जगह पाया जाता है। महाभारत में अनेक स्थानों पर, मन की मिन मिल वृत्तियों को देवताओं का स्वरूप दिया गया है। पिछले