पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७६

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< आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । की व्याख्या करते समय सामान्यतः सिर्फ यही कहा जाता है कि संकल्प-विक- पात्मक मनः परन्तु, ध्यान रहे कि, उस समय भी इस प्याख्या में मन के दोनों च्यापारों का समावेश किया जाता है। बुद्धि' का जो अर्थ ऊपर किया गया है, कि यह निर्णय करनेवाली इन्द्रिय है, वह अर्थ केवल शास्त्रीय और सूक्ष्म विवेचन के लिये उपयोगी है । परन्तु इन शास्त्रीय अर्थों का निर्णय हमेशा पीछे से किया जाता है। अतएव यहाँ 'शुद्धि' शब्द के उन व्यावहारिक अघों का भी विचार करना आवश्यक है जो इस शब्द के सम्बन्ध में, शास्त्रीय अर्थ निश्चित होने के पहले ही प्रचलित हो गये हैं । जय तक व्यवसायात्मक शुद्धिः किसी बात का पहले निर्णय नहीं करती तय तक हमें उसका शान नहीं होता; और जय तक ज्ञान नहीं हुआ है तब तक उसके प्राप्त करने की इच्छा या वासना भी नहीं हो सकती । अतस्व, जिस प्रकार व्यवहार में आम के पेड़ और फल के लिये एक ही शब्द प्राम का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार व्यवसायात्मक बुद्धि के लिये और उस युद्धि के वासना आदि फलों के लिये भी एक ही शब्द ' बुद्धि का उपयोग व्यवहार में कई यार किया जाता है । उदाहर- णार्थ, जब हम कहते हैं कि अमुक मनुष्य की बुद्धि खोटी है तब हमारे बोलने का यह अर्थ होता है कि उसकी वासना ' खोटी है। शास्त्र के अनुसार इच्छा या वासना मन के धर्म होने के कारण उन्हें बुद्धि शब्द से सम्बोधित करना युक्त नहीं है। परन्तु बुद्धि शब्द की शासीय जाँच होने के पहले ही से सर्वसाधारण लोगों के व्यवहार में युधि ' शब्द का उपयोग इन दोनों अथा में होता चला पाया है:-(१) निर्णय करनेवाली इन्द्रिय और (२) उस इन्द्रिय के व्यापार से मनुष्य के मन में उत्पन होनेवाली वासना या इच्छा। अतएव, आम के भेद बत- जाने के समय जिस प्रकार पेड़' और 'फल' इन शब्दों का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार जव बुद्धि के उक्त दोनों अयों की भिजता व्यक्त करनी होती है, तब निर्णय करनेवाली अर्थात शालीय बुद्धि को 'व्यवसायात्मिक विशपेण जोड़ दिया जाता है और वासना को केवल 'बुद्धि 'अथवा वासनात्मक कहते हैं। गीता (२. ११, १४, १८; और ३. ४२) में 'बुद्धि' शब्द का उपयोग उपयुम दोनों प्रयों में किया गया है। कर्मयोग के विवेचन को ठीक ठीक समझ लेने के लिये 'घुद्धि शब्द के उपर्युक्त दोनों अर्थों पर हमेशा ध्यान रखना चाहिये । जव मनुष्य कुछ काम करने लगता है तब उसके मनोव्यापार का कम इस प्रकार होता है-पहले यह व्यवसायात्मिक ' युद्धीन्द्रिय से विचार करता है कि यह कार्य अच्छा है या युरा, करने के योग्य है या नहीं और फिर इस कर्म के करने की इच्छा या वासना (अर्थात वासनात्मक बुद्धि) उत्पन्न होती है। और तब वह उक्त काम करने के लिये प्रवृत हो जाता है। कार्य-अकार्य का निर्णय करना जिस (व्यवसायात्मिक) युद्धीन्द्रिय का व्यापार है, वह यदि स्वस्थ और शान्त हो, तो मन में निरर्थक अन्य वासनाएँ (बुद्धि) उत्पन्न नहीं होने पाती गी.र.१८ , युद्धि