पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१८१

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गीतारहस्य अथवा कमयोगशास्त्र । दैवत पन की सहल युक्ति भी किसी काम की नहीं, तब यह जानना आवश्यक है कि, कर्मयोगशास्त्र की उपपत्ति हूँढ़ने के लिये कोई अन्य मार्ग है या नहीं? और, उत्तर भी यह मिलता है कि, हाँ, मार्ग है और उसी को आध्यात्मिक मार्ग कहते हैं। इसका कारण यह है कि, यद्यपि वाह्य कमों की अपेक्षा बुर्विश्रेष्ठ है, तथापि जब सदसद्विवेक बुद्धि नामक स्वतन्त्र और स्वयंभू देवता का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता तब, कर्मयोगशास्त्र में भी इन प्रश्नों का विचार करना आवश्यक हो जाता है कि, शुद्ध कर्म करने के लिये वृद्धि को किस प्रकार शुद्ध रखना चाहिये, शुद्ध बुद्धि किसे कहते हैं, अथवा बुद्धि किस प्रकार शुद्ध की जा सकती है? और यह विचार, केवल वाहा सृष्टि का विचार करनेवाले आधिभौतिकशास्त्रों को छोड़े बिना, तथा अध्यात्मज्ञान में प्रवेश दिये विना, पूर्ण नहीं हो सकता। । इस विषय में हमारे शास्त्रकारों का अन्तिम सिद्धान्त यही है कि, जिस बुद्धि को प्रात्मा का अथवा परमेश्वर के सर्वव्यापी यमार्थ स्वल्प का पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ है, वह बुद्धि शुद्ध नहीं है। गीता में अध्यात्मशास्त्र का निरूपण यही बतलाने के लिये किया गया ई, कि प्रात्मनिष्ठ बुद्धि किसे कहना चाहिये। परन्तु इस पूर्वापर संबंध की ओर ध्याना न देकर, गीता के कुछ साम्प्रदायिक टीकाकारों ने यह निश्चय किया है, कि गीता में मुख्य प्रतिपाद्य विषय वेदान्त ही है। आगे चल कर यह बात विस्तारपूर्वक क्तलाई जायगी कि, गीता में प्रतिपादन किये गये विषय के लम्बन्ध में उक्त टीकाकारों का किया हुआ निर्णय ठीक नहीं है। यहाँ पर सिर्फ यही यतलाना है कि, बुद्धि को शुद्ध रखने के लिये श्रात्मा का भी अवश्य विचार करना पड़ता है। आत्मा के विषय में यह विचार दो प्रकार से किया जाता है:-(१) स्वयं अपने पिएट, क्षेत्र अथवा शरीर के और मन के व्यापारों का निरीक्षण करके यह विचार करना, कि रस निरी- क्षण से क्षेत्रज्ञरूपी आत्मा से निप्पर होता है (गी. अ. १६) । इसी को शारी- रक अथवा क्षेत्र शेवश-विचार कहते हैं, और इसी कारण वेदान्तसूत्रों को शारीरक (शरीर का विचार करनेवाले) सूत्र कहते हैं। स्वयं अपने शरीर और मन का इस प्रकार विचार होने पर, (२) जानना चाहिये कि, उस विचार से निष्पन्न होनेवाला तत्व, और हमारे चारों ओर की दृश्य-सृष्टि अांद ब्रह्माण्ड के निरीक्षण से निष्पन्न होनेवाला तत्व, दोनों एक ही हैं अथवा मिन भिन्न हैं । इस प्रकार किये गये सृष्टि के निरीक्षण को क्षर-अक्षर-विचार अथवा व्यक्त अव्यक्त विचार कहते हैं। सृष्टि के सब नाशवान् पदार्थो को चर' या नक' कहते हैं और सृष्टि के उन नाशवान् पदार्थों में नो सारभूत नित्यतत्व है उसे 'अक्षर' या 'अन्यक्क' कहते हैं (गी; ८.२१, १५. ५६) । क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार और क्षर-अक्षर-विचार से प्राप्त होनेवाले इन दोनों तत्वों का फिर से विचार करने पर प्रगट होता है कि ये दोनों तत्व जिससे निप्पन्न हुए हैं, और इन दोनों के परे जो सव का मूलभूत एक तत्त्व है, उसी को परमात्मा' अथवा 'पुरुषोचम' कहते हैं (गी.८.२०)। इन बातों का विचार भगवद्गीता में किया गया है। और अन्त में, कर्मयोगशास्त्र की उपपत्ति बतलाने के लिये यह दिखलाया