पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२०६

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कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार। १६७ जिस जन्म-मरण से छुटी पाना है, या सांस्यों की परिभाषा के अनुसार जिस प्रकृति से अपनी मिनता अर्थात कैवल्य चिरस्थायी रखना है, उसे निगुणातीत हो कर विरक्त (संन्यस्त ) होने के सिवा दूसरा मार्ग नहीं है। कपिलाचार्य को यह वैराज्य और शान जन्मते ही प्राप्त हुआ था। परंतु यह स्थिति सब लोगों को जन्म ही से प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिये तत्व-विवेक रूप साधन से प्रकृति और पुरुप की भिन्नता को पहचान कर प्रत्येक पुरप को अपनी सुन्दि शुद्ध कर लेने का यत्न करना चाहिये । ऐसे प्रयत्नों से जब पुद्धि सात्विक हो जाती है, तो फिर उसमें ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य मादि गुग्गा स्पत होते हैं और मनुष्य को अंत में कंबल्ग-पद प्राप्त हो जाता है। जिस वस्तु को पाने की मनुष्य इच्छा करता है उसे प्राप्त कर लेने के योग-सामर्थ्य को ही यहाँ ऐश्वर्य कहा है। सांख्य-मत के अनुसार धर्म की गणना सात्विक गुण में ही की जाती है परंतु कपिलाचार्य ने अंत में यह भेद किया है कि केवल धर्म से स्वर्ग-प्राति ही होती है, और ज्ञान तथा पैराग्य (संन्यास) से मौत या कैवल्यपद प्राप्त होता है तथा पुरुष के दुःखो की प्रात्यसिक निवृत्ति हो जाती है। जय देहेन्द्रियों और बुद्धि में पहले सत्व गुण का उत्कर्प होता है और जब धीरे धीरे उन्नति होते होते अंत में पुरुष को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं त्रिगुणा- त्मक प्रकृति से भिन्न हूँ, तब उसे सांख्य यादी " त्रिगुणातीत " अर्थात सत्य-रज- तम गुणों के परे पहुँचा हुमा कहते हैं। इस निगुणातीत अवस्था में सस्व-रज-तम में से कोई भी गुण शेप नहीं रहता। कुछ सूक्ष्म विचार करने से मानना पड़ता कि वह लिगुगातीत अवस्था साविक, राजस और तामस इन तीनों अवस्याओं से भिन्न है। इसी अभिप्राय से भागवत में भक्ति के तामस, राजस और सात्विक भेद करने के पश्चात् एक और चौथा भेद किया गया है। तीनों गुणों के पार होजाने- वाला पुरुष निर्हेतुक कहलाता है और सभेद भाय से जो भक्ति की जाती है उसे "निर्गुगा भाक्ति" कहते हैं (भाग ३. २६.७-१४)। परंतु साविक, राजस और तामस इन तीनों वर्गों की अपेक्षा वर्गीकरण के तस्वी को व्यर्थ अधिक बढ़ाना उचित नहीं है। इसलिये सांख्य-वादी कहते हैं कि सत्वगुण के अत्यंत उत्कर्ष से ही अंत में भिगुणातीत अवस्था प्राप्त हुआ करती है और इसलिये वे इस अवस्था की गणना साविक वर्ग में ही करते हैं। गीता में भी यह मत स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ, वहाँ कहा है कि "जिस प्रभेदात्मक ज्ञान से यह मालूम हो कि सब कुछ एक ही है उसी को साविक ज्ञान कहते हैं" (गी. १८.२०)। इसके सिवा सत्वगुण के वर्णन के याद ही, गीता में १४ वें अध्याय के अंत में, त्रिगुणातीत अवस्था का वर्णन है। परंतु भगवद्गीता को यह प्रकृति और पुरुष- वाला द्वैत मान्य नहीं है इसलिये ध्यान रखना चाहिये कि गीता में प्रकृति', पुरुष त्रिगुणातीत' इत्यादि सांख्य-वादियों के पारिभाषिक शब्दों का उपयोग कुछ भिन्न अर्थ में किया गया है अथवा यह कहिये कि गीता में सांख्यवादियों के द्वैस पर भद्वैत परमस की छाप' सर्वत्र लगी हुई है । उदाहर- 6