पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१७

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१७८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। शन्दरागात् श्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः। ल्परागात् तथा चनुः ब्राणं गन्धजिवृक्षया || अर्थात "प्राणियों के बाला को जब शब्द सुनने की भावना हुई तय कान उत्पन्न हुआ, रूप पहचानने की इच्छा से आँख और घने की इच्छा से नाक उत्पन्न हुई।" परन्तु सांख्या का यह कथन है, कि यद्यपि त्वचा का प्रादुर्भाव पहले होता हो, तथापि मूलप्रकृति में ही यदि मिन भिन्न इन्द्रियों के उत्पन्न होने की शकिन हो, तो सजीव सृष्टि के अत्यन्त छोटे कीड़ों की त्वचा पर सूर्य प्रकाश का चाहे जितना प्राघात या संयोग होता रहे, तो भी आँखें-मार वे नी शरीर के एक विशिष्ट भाग ही में-कैसे प्रात हो सकती है ? दार्विन का सिद्धान्त सिर्फ यह आशय प्रगट करता है कि, दो प्राणियों-क धनुवाला और दूसरा चक्षु-हित-के निर्मित होने पर, इस लड़-वृष्टि के कलह में चसुवाला अधिक समय तक टिक सकता है और दूसरा शीन ही नष्ट जाता है। परंतु पश्चिमी गधिमामिक सृष्टि- शास्त्रज्ञ इस यात का मूल कारण नहींयतलासमते, कि नेत्र प्रादिमित्र मिन इन्द्रियों की उत्पत्ति पहले हुई ही क्यों । सारयों का मत यह है कि ये सब इन्द्रियाँ रिसी एकही मूल इंद्रिय से मशः उत्सत नही तों; किन्नु जय प्रकार के कारण प्रकृति में विविधता का प्रारंभ होने लगता है, वय पहले उस प्रकार से (पाँच सूक्ष्म कमेन्द्रियाँ, पाँच सूनम मानन्द्रियाँ और मन,इन लय को मिला कर) ग्यारह मिन मिन गुण (शक्ति) सब के सब एक साय (युगान् ) ग्यमंत्र होकर भूत प्रकृति में ही उत्पन्न होते हैं, और फिर इसके मागे घ्यूल सेंद्रिय-सृष्टि उत्पन्न हुमा करती है। इन न्यारह इन्द्रियों में से, मन के बारे में पहले ही, छठवें प्रकरण में यतला दिया गया है, कि वह ज्ञानेन्द्रियों के साय संकास-विकासात्मक होता है अर्यात ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण किये गये संस्कारों की प्यवस्था करके वह उन्हें बुद्धि के सामने निर्णयार्थ उपस्थिन करता है और फर्मेन्द्रियों के साप यह व्याकरणात्मक होता है अर्याद उसे बुद्धि के निर्णय को कर्मेन्द्रियों के द्वारा अमल में लाना पड़ता है। इस प्रकार वह उभयविध, अपांव इंद्रिय नेद के अनुसार मिन भिन्न प्रकार के काम करनेवाला, होता है। उपनिपदों में इन्द्रियों को ही 'प्राण' कहा है। और सांख्यों के मतानुसार पनिपत्कारों का भी यही मन है कि, ये प्राण पञ्च- महाभूतात्मक नहीं है फिन्तु परमात्मा से पृथक उत्पन्न हुए हैं (मुंद. २.१.३.)। इन प्राणों की यात् इन्द्रियों की संख्या उपनिषदों में कहीं सात, कहीं दस, ग्यारह बारह और कहीं कहीं तेरह यतलाई गई है। पन्त, वेदान्तसूत्रों के माधार से श्रीशंकराचार्य ने निश्चित किया है कि, उपनिपदों के सब वाक्यों की प्रकल्पता करने पर इन्द्रियों की संग्ल्या न्यारह ही सिद्ध होती है (सु.शांमा. २. १.५,६); भार, गीता में तो इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि, "इन्द्रियाणि दर्शक घ" (गी. १३.५.) अर्थात् इन्द्रियाँ दस और एक' अर्थात् ग्यारह हैं। भव इस विषय पर सांस्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं रहा।