पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२२८

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. विश्व की रचना और संहार । १८६ उस अवस्था में, इन तेरह गुणात्मक तत्वों के लिये किसी अन्य दुव्यात्मक आश्रय की मावश्यकता होती है। यदि मूलप्रकृति ही को प्राश्रय मान लें, तो यह अव्यक्त और अविकृत अवस्था की, अर्थात् अनंत और सर्वव्यापी होने के कारण, एक छोटे से लिंग-शरीर के प्राइंकार, मुद्धि प्रादि गुगों का आधार नहीं हो सकती। अतएव मूल प्रकृति के ही द्वन्यात्मक विकारों में से, स्थूल पञ्चमहाभूतों के बदले, उनके मूलभूत पाँच सूक्ष्म तन्मात्र-द्रव्यों का समावेश, उपर्युक्त तेरह गुणों के साथ ही साथ उनके आश्रय-स्थान की दृष्टि से, लिंग-शरीर में करना पड़ता है (सां. का. ४१)। बहुतेरे सांख्य ग्रन्थकार, लिंग-शरीर और स्यूलशरीर के बीच गक और तीसरे शरीर (पञ्चतन्माताओं से बने हुए) की कल्पना करके, प्रतिपादन करते है कि, यह तीसरा शरीर लिंगशरीर का आधार है। पन्त, हमारा मत यह है कि, सांख्य-कारिका की इकतालीसवीं पायर्या का यथार्थ भाव पैसा नहीं है, टीका- कारों ने श्रम से तीसरे शरीर की कल्पना की है। इमारे मतानुसार इस आर्या का उद्देश सिर्फ इस बात का कारण यतलाना ही है, कि पुद्धि आदि तेरह तत्त्वों के साथ पञ्चतन्मात्राओं का भी समावेश लिंगशरीर में क्यों किया गया। इसके अति. रिक्त अन्य कोई हेतु नहीं है । कुछ विचार करने से प्रतीत हो जायगा कि, सूक्ष्म अठारह तावों के लाग्योक्त लिंग-शरीर में और उपनिषदों में वर्णित लिंग-शरीर में विशेष भेद नहीं है। वृह- दारण्यकोपनिषद् में कहा है कि,-" जिस प्रकार जोक (जलायुका) घास के तिनके के एक चोर तक पहुँचने पर दूसरे तिनके पर (सामने के पैरों से) अपने शरीर का अग्रभाग रखती है और फिर पहले तिनके पर से अपने शरीर के अंतिम भाग को खींच लेती है, उसी प्रकार पात्मा एक शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में जाता है" (पृ. ४.१.३)। परन्तु फेवल इस पृष्टान्त ले ये दोनों अनुमान सिद्ध नहीं होते कि, निरा आत्मा ही दूसरे शरीर में जाता है, और यह भी एक शरीर से छूटते ही चला जाता है । क्योंकि वृहदारण्यकोपनिपद् (४. ४.५) में भागे चल कर यह वर्णन किया गया है कि, आत्मा के साथ साथ पाँच (सूक्ष्म) भूत, मन, इन्द्रियाँ, प्राण और धर्माधर्म भी शरीर से बाहर निकल जाते हैं और यह भी गह कुमारिल क्रस मीमांसासोकवातिया येथ के एका लोक से (आत्मवाद, श्लोका ६२ ) देख पड़ेगा कि उन्होंने इस भार्या का अर्थ हमारे अनुसार ही लगाया है। वह लोफ यह है: अंतरामपदेशो हि नेष्यते विंध्यवासिना। सदस्तित्वे प्रमाण दिन किंचिढवगम्यते ॥६॥ "अंतराभव, अर्थात लिंगशरीर और स्थूलशरीर यो बीचमाले शरीर से विंध्यवासी सहमत नहीं है। यह मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं है कि उक्त प्रकार का कोई शरीर है।" ईश्वरकृष्ण पिंध्याचल पर्वत पर रहता था, इसलिये उसको विंध्यवासी कहा है। अंतराभवशरीर को धर्व' भी कहते है। अमरकोश ३. ३. १३२ और उसपर श्री कृष्णाजी गोविंद ओक दारा प्रकाशित क्षीरस्वामी की टीका तथा उस ग्रंथ यो प्रस्तावना पृष्ठ ८ देखो। -