पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६४

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अध्यात्म । २२५ महा मनोमय ही कहा जावेगा (ते. ३. ४) । परन्तु अब तक जो विवेचन हुआ है, उससे तो यही कहा जावेगा कि-'प्रज्ञानं प्रमा' (ऐ.३.३) अथवा विज्ञान ब्रह्मा' (ते. ३.५)-सृष्टि के नानात्व का जो ज्ञान एफस्वरूप से हमें होता है, वही मक्षा का स्वरूप होगा। हेगल का सिद्धान्त इसी ढंग का है। परन्तु उपनिषदों में, चिद्रूपी ज्ञान के साथ ही साथ सत् (अर्थात् जगत की सारी वस्तुओं के अस्तित्व के सामान्य धर्म या सत्ता-समानता) का और आनन्द का भी प्रम-स्वरूप में ही अन्त- भर्भाव करके नाम को सचिदानन्दरूपी माना है। इसके अतिरिक दूसरा ब्राह्म-स्वरूप कहना हो तो वह कार है। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है:-पहले समस्त अनादि ॐकार से उपजे हैं और वेदों के निकल चुकने पर, उनके नित्य शब्दों से ही आगे चल कर ब्रह्मा ने जब सारी सृष्टि का निर्माण किया है (गी. १७. २३२ ममा. शां. २३१. ५६-५८), तय मूल भारम्भ में ॐकार को छोड़ और कुछ न था । इससे सिद्ध होता है कि कार ही सद्या ग्रह-स्वरूप है (माण्डूक्य. १ तैत्ति. १)। परंतु केवल अध्यात्म-शास की दृष्टि से विचार किया जाय तो परपस के ये सभी स्वरूप थोड़े बहुत नाम-रूपात्मक ही है। क्योंकि इन सभी स्वरूपों को मनुष्य अपनी इन्द्रियों से जान सकता है, और मनुष्य को इस रीति से जो कुछ ज्ञात हुआ करता है यह नाम-रूप की ही श्रेणी में है। फिर इस नाम-रूप के मूल में जो अनादि, भीतर-बाहर सर्वत्र एक सा भरा हुआ, एक ही नित्य और अमृत तत्व है (गी. १३. १२-१७), उसके वास्तधिक स्वरूप का निर्णय हो तो क्योंकर हो? कितने ही अध्यात्मशास्त्री परिसत कहते हैं कि कुछ भी हो, यह तय इमारी इन्द्रियों को अज्ञेय ही रहेगा और कान्ट ने तो इस प्रश्न पर विचार करना ही छोड़ दिया है। इसी प्रकार उपनिपदों में भी परमहा के अज्ञेय स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है। -नेति नेति" अर्थात् यह नहीं है कि जिसके विषय में कुछ कहा जा सकता है बस इससे परे है, वह माँखों से देख नहीं पड़ता; वह वाणी को और मन को भी अगोचर है-" यतो चाची निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । " फिर भी अध्यात्म- शास्त्र ने निश्चय किया है कि इस प्रगम्य स्थिति में भी मनुष्य अपनी बुद्धि से अप के स्वरूप का एक प्रकार से निर्णय कर सकता है। ऊपर जो वासना, स्मृति, एति, पाशा, प्राण और ज्ञान प्रभृति अव्यक्त पदार्थ यतलाये गये हैं, उनमें से जो सबसे अतिशय न्यापक अथवा सबसे श्रेष्ठ निर्णात हो, उसी को परमस का स्वरूप मानना चाहिये । क्योंकि यह तो निर्विवाद ही है कि सब अध्यक्त पदार्थों में परबम श्रेष्ठ है। अव इस रष्टि से आशा, स्मृति, वासना और पति यादि का विचार करें तो ये सय मन के धर्म हैं, अतएव इनकी अपेक्षा मन श्रेष्ठ हुना; मन से ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान है बुद्धि का धर्म, अतः ज्ञान से युन्द्रि श्रेष्ट हुई और अन्त में यह बुद्धि भी जिसकी नौकर है वह आत्मा ही सबसे श्रेष्ठ है (गी. ३. ४२)। क्षेत्र-क्षेत्रश- प्रकरण में इसका विचार किया गया है। अब वासना और मन आदि सय अध्यक्त पदार्थों से यदि भात्मा श्रेष्ठ है, तो आप ही सिद्ध हो गया कि परग्रह का स्वरूप भी गी. र. २६