पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२९९

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दसवाँ प्रकरण । कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । कर्मणा वध्यते जन्तुर्विद्यया तु प्रमुच्यते । महानारत, शान्ति. २४०.७॥ यद्यपि यह सिद्धान्त अन्त में सच है कि इस संसार में जो कुछ है वह परब्रह्म ही हैः पत्यक्ष को छोड़ कर अन्य कुछ नहीं है, तथापि मनुष्य की इन्द्रियों को गांचर होनेवाली दृश्य सृष्टि के पदार्थों का अध्यात्मशास्त्र की चलनी से जब हम संशोधन करने लगते हैं, नय उनके नित्य मानत्व-रूपी दो विभाग या समूह हो जाते हैं तो उन पदायों का नाम-रूपात्मक दृश्य ई जो इन्द्रियों को प्रत्यक्ष देख पड़ता है। पस्नु हमेशा बदलनेवाला होने के कारण अनित्य है और दूसरा पर- मात्म-तत्व है जो नाम-रूपों से शास्त्रादित होने के कारण अश्य, परन्तु नित्य है। यह सच है कि रसायन-शान में जिस प्रकार सम पदार्थों का पृपण करके उनके घटक द्रव्य अलग अलग निकाल लिये जाते हैं, उसी प्रकार ये दो विमाग भाँखों के सामने पृयर ध्यान नहीं रखे जा सकते; परन्तु ज्ञान-दष्टि से उन दोनों को अलग अलग करके शास्त्रीय उपादन के मुभीत के लिये उनका प्रमशः 'म' और 'माया' तया कभी कमी मानाष्ट' और 'माया-ष्टि' नाम दिया जाता है । तथापि स्मरण रहे कि ब्रह्म मूल से ही नित्य और सत्य है, इस कारण उसके साथ मुष्टि शब्द ऐसे अवसर पर अनुप्रासायं लगा रहता है, पर प्रस-सृष्टि ' शब्द से यह मतलय नहीं है कि ग्राम को किसी ने उत्पन किया है। इन दो सृष्टियों में से, विशाल आदि नाम-रूपों से अमयादित, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमृत, स्वतंत्र और सारी दृश्य-सृष्टि के लिये साधारभूत हो कर उसके भीतर रहनेवाली या-सृष्टि में, ज्ञानचक्षु से सञ्चार करके प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप अथवा अपने परम साध्य का विचार पिछले प्रकरण में किया गया और सच पूछिये तो शुद्ध सध्यात्मशान वहीं समाप्त हो गया। परन्तु, मनु य का शात्मा यद्यपि आदि में ब्रह्म-सृष्टि का है, तयापि दृश्य-सृष्टि की अन्य वस्तुओं की तरह वह भी नाम-रूपात्मक देहेन्द्रियों से आच्छादित है और ये देहेन्द्रिय प्रादिक नाम-रूप विनाती है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य की यह स्वमाविक इच्छा होती है कि इनसे छूट कर अमृतत्व कसे प्रात करूँ। और, इस इच्छा की पूर्ति के लिये मनुष्य को न्यवहार में कैसे चलना चाहिये -कर्मयोग-शास्त्र के इस विषय का विचार करने के लिये, कर्म के कायदों से बंधी हुई अनित्य नाया-वष्टि के द्वैती प्रदेश में ही अब हमें आना चाहिये । पियड और कर्म से प्राणी बाँधा जाता है और विया से उसका सुटकारा हो जाता है।" --