पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३११

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२७२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मारध-कर्म है। प्रारब्ध और संचित के अतिरिक्त कर्म का क्रियमाण नामक एक और तीसरा भेद है।' क्रियमाण' वर्तमान-कालवाचक धातु-साधित शब्द है और उसका अर्थ है-जो कर्म अभी हो रहा है अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है। पन्तु वर्तमान समय में हम जो कुछ करते हैं वह प्रारब्ध कर्म का ही (अर्थात् संचित कर्मों में से जिन कमों का भोगना शुरू हो गया है, उनका ही) परिणाम है अतएव क्रियमाण' को कर्म का तीसरा भेद मानने के लिये हमें कोई कारण देख नहीं पड़ता। हाँ,यह भेददोनों में अवश्य किया जा सकता है कि प्राध कारण है और क्रियमाण उसका फल अर्थात् कार्य परन्तु कर्म-विपाक प्रक्रिया में इस भेद का कुछ उपयोग नहीं हो सकता । संचित में से जिन कर्मों के फलों का भोगना अभी तक आरम्भ नहीं हुआ है उनका अर्थात् संचित में से प्रारब्ध को घटा देने पर जो कर्म चाकी रह जायें उनका-बोध कराने के लिये किसी दूसरे शब्द की आवश्यकता है। इसलिये वैदान्तसूत्र (४. १. १५) में प्रारब्ध ही को प्रारूध-कार्य और जो प्रारब्ध नहीं हैं उन्हें अनास्थ कार्य कहा है। हमारे मतानुसार संचित कमों के इस रीति से प्रारब्ध-कार्य और अनारुध-कार्य-दो भेद करना ही शास्त्री दृष्टि से अधिक युक्तिपूर्ण मालूम होता है। इसलिये क्रियमाण' को धानु-साधित वर्तमानकालवाचक न समझ कर 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा' इस पाणिनिसूत्र के अनुसार (पा.३.३, १३१) भविष्यकालवाचक समझ, तो उसका अयं जो आगे शीघ्र ही भोगने को है' दिया जा सकेगा; और तय क्रियमाण का ही अर्थ अनारध-कार्य हो जायगा; एवं प्रारूध' तथा 'क्रियमाण' ये दो शब्द क्रम से वेदान्तस्त्र के 'पारध कार्य' और 'अनारध-कार्य शब्दों के समानार्थक हो जायँगे । परन्तु क्रियमाण का ऐसा अर्थ आज-कल कोई नहीं करता, उसका अर्थ प्रचलित कर्म ही लिया जाता है। इस पर यह आक्षेप है कि ऐसा अर्थ लेने से प्रारब्ध के फल को ही क्रियमाण कहना पड़ता है और जो कर्म अनारख्ध कार्य है उनका बोध कराने के लिये संचित, मारब्ध तथा क्रियमाण इन तीनों शब्दों में कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं होता । इसके अतिरिक्त क्रियमाण शब्द के रूढार्थ को छोड़ देना भी अच्छा नहीं है। इसलिये कर्म-विपाक-क्रिया में संचित, प्रारब्ध और कियमाण-कर्म के इन लौकिक भेदों को न मान कर हमने उनके अनारध-कार्य और माध-कार्य यही दो वर्ग किये हैं और यही शाख-दष्टि से भीसुमीते के हैं। भोगना' क्रिया के कालकृत तीन भेद होते हैं जो भोगा जा चुका है (भूत), जो भोगा जा रहा है (वर्तमान), और जिसे भागे भोगना है (भविष्य) परन्तु कर्म-विपाक-क्रिया में इस प्रकार कर्म के तीन भेद नहीं हो सकते; क्योंकि संचितमें से जो कर्मप्रारुध हो कर भोगे जाते हैं उनके फल फिर भी संचित ही में जा मिलते हैं। इसलिये कर्म-भोग का विचार करते समय संचित के यही दो भेद हो सकते हैं-(१)वे कर्म जिनका भौगना शुरू हो गया है अर्थात् प्रारब्ध; और () जिनका भोगना शुरू नहीं हुआ है अर्थात अनास्था इन दो भेदों से अधिक भेद करने की कोई अावश्यकता नहीं है।