पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३१२

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कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २७३ इस प्रकार सय कर्मों के फलों का विविध वर्गीकरण करके उनके उपभोग के सम्बन्ध में कर्म-विपाक-प्रक्रिया यह बतलाती है, कि ससित ही कुल भोग्य है, इसमें से जिन कर्म-फली का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर या जन्म मिला है, अर्याद सन्नित में से जो कर्म प्रारब्ध हो गये हैं, उन्हें भोगे विना छुटकारा नहीं है- "प्रारब्धकर्मणां भोगादेव क्षयः । " जय एक बार हाथ से बाण छूट जाता है तय वह लौट कर पा नहीं सकता। अन्त तक चला ही जाता है। अथवा जब एक बार कुम्हार का चाक घुमा दिया जाता है तब उसकी गति का अन्त होने तक यह घूमता ही रहता है। ठीक इसी तरह प्रारब्ध ' कर्मों की अर्थात जिनके फल का भोग होना शुरू हो गया है उनकी भी अवस्था होती है। जो शुरू हो गया है, उसका अन्त ही होना चाहिये । इसके सिवा दूसरी गति नहीं है। परन्तु अनारब्ध-कार्यकर्म का ऐसा हाल नहीं है. इन सब कर्मों का ज्ञान से पूर्णतया नाश किया जा सकता है। प्रारब्ध-कार्य और अनारध-कार्य में जो यह महत्त्वपूर्ण भेद है उसके कारण ज्ञानी पुरुप को ज्ञान होने के बाद भी नैसर्गिक रीति से मृत्यु होने तक, अर्थात् जन्म के साथ ही प्रारब्ध हुए कर्मों का अन्त होने तक, शान्ति के साथ राह देखनी पड़ती है। एसा न करके यदि वह हठ से देह त्याग करे तो-ज्ञान से उसके अनारध-कर्मों का क्षय हो जाने पर भी-देहारम्भक प्रारब्ध-कर्मों का भोग अपूर्ण रह जायगा और उन्हें भोगने के लिये उसे फिर भी जन्म लेना पड़ेगा, एवं उसके मोक्ष में भी बाधा आ जायगी। यह वेदान्त और सांख्य, दोनों शास्त्रों का निर्णय है। (वैसू. ४. १. १३-१५ तथा सां. का. ६७) । उक्त बाधा के सिवा इठ से आत्म हत्या करना एक नया कर्म हो जायगा और उसका फल भोगने के लिये नया जन्म लेने की फिर भी आवश्यकता होगी। इससे साफ जाहिर होता है कि कर्मशास की दृष्टि से भी श्रात्म-हत्या करना मूर्खता ही है। कर्मफल भोग की दृष्टि से कर्म के भेदों का वर्णन हो चुका । य इसका विचार किया जायगा कि कर्म-बंधन से छुटकारा कैसे अर्थात् किस युक्ति से हो सकता है। पहली युक्ति कर्म-वादियों की है। ऊपर बतलाया जा चुका है कि अनारब्ध-कार्य भविष्य में भुगते जानेवाले संचित कर्म को कहते हैं-फिर इस कर्म को चाहे इसी जन्म में भोगना पड़े या उसके लिये और भी दूसरा जन्म लेना पड़े । परन्तु इस अर्थ की ओर ध्यान न दे कर कुच मीमांसकों ने कर्मवन्धन से छूट कर मोक्ष पाने का अपने मतानुसार एक सहज मार्ग ढूंढ़ निकाला है । तसिरे प्रकरण में याहे अनुसार मीमांसकों की ष्टि से समस्त कर्मों के नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निपिद्ध ऐसे चार भेद होते हैं। इनमें से सन्ध्या आदि नित्य-कर्मों को न करने से पाप लगता है और नैमित्तिक कर्म तभी करने पड़ते हैं कि जब उनके लिये कोई निमित्त उपस्थित हो । इसलिये मीमांसकों का कहना है कि इन दोनों को को करना ही चाहियोयाकी रहे काम्य और निषिद्ध कर्म । इनमें से निपिद्ध कर्म करने से पाप लगता है, इस- जिये महीं करना चाहिये और काम्य को को करने से उनके फलों को भोगने के गी. २.३५