पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३२५

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२८६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । में समडादि हो जाती है उनके किये हुए कर्म उनके बन्धन का कारण नहीं हो सकते; "सर्वकर्मफलत्यागं कुरु" (गी. १२.११)-सव कर्मफलों का त्याग कर; कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियते" (गी. १८.६) केवल कर्तव्य समझ कर जो प्राप्त कर्म किया जाता ई वही सात्त्विक है । चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य" (गी. १८.५७) सब कमों को मुझे अर्पण करके वर्ताव कर । इन सब उपदेशों का रहस्य वही है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। अब यह एक स्वतंत्र प्रश्न ई कि ज्ञानी मनुष्यों को सव व्यावहारिक कर्म करने चाहिये या नहीं। इसके सम्बन्ध में गीताशास्त्र का जो सिद्धान्त है उसका विचार अगले प्रकरण में किया जायगा। अभी तो केवल यही देखना है कि ज्ञान से सब कमों के भस हो जाने का अर्थ क्या है; और ऊपर दिये गये वचनों से, इस विषय में गीता का जो अभिप्राय है वह, भली भाँति प्रगट हो जाता हाव्यवहार में भी इसीन्याय का उपयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ, यदि एक मनुष्य ने किसी दूसरे मनुष्य को धोखे से धक्का दे दिया तो हम उसे उजट्ट नहीं कहते । इसी तरह यदि केवल दुर्घटना से किसी को हत्या हो जाती है तो उसे फौजदारी कानून के अनुसार स्खून नहीं समझते । अग्नि से घर जल जाता है अथवा पानी से सैकड़ों खेत वह जाते हैं, तो क्या अग्नि और पानी को कोई दोषी समझता है? केवल कर्मों की ओर देखें तो मनुष्य की दृष्टि से प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ दाप या अवगुण अवश्य ही मिलेगा “ सवारमा हि दोपेण धूमेनाग्निरिवावृताः" (गी. ३८.४८) । परन्तु यह वह दोप नहीं है कि जिसे छोड़ने के लिये गीता कहती है । मनुष्य के किसी कर्म को जब हम अच्छा या धुरा कहते हैं, तब यह अच्छापन या दुरापन चयाप में उस कम में नहीं रहता, किन्तु कर्म करनेवाले मनुष्य की बुद्धि में रहता है। इसी बात पर ध्यान दे कर गीता (२. ४६-५१) में कहा है कि इन कर्मा के बुरेपन को दूर करने के लिये कत्ता को चाहिये कि वह अपने मन और बुद्धि को शुद्ध रखे और उपनिषदों में भी कर्ता की बुद्धि को ही प्रधानता दी गई है, जैसे:- मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः । वन्धाय विषयासंगि मोशे निविषयं स्मृतम् ।। "मनुष्य के (कर्म से) बंधन या मोक्ष का मन ही (एव) कारण है। मन के विपासक होने से बंधन, और निष्काम या निर्विषय अर्थात् निःसंग होने से मोर होता है" (मैन्यु.६ ३४ अमृतबिन्दु.२) गीता में यही बात प्रधानता से चतलाई गई है कि, ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान से बुद्धि की उक्त साम्यावस्था कैसे प्राप्त कर लेनी चाहिये । इस अवस्था के प्राप्त हो जाने पर कर्म करने पर भी पूरा कर्म-क्ष्य हो जाया करता है। निरग्नि होने से अर्थात् संन्यास ले कर अग्निहोत्र प्रादि कर्मा को छोड़ देने से, अथवा प्रक्रिय रहने से अर्थात् किसी भी कर्म को न कर चुपचाप बैठे रहने से, कर्म का आय नहीं होता (गो.६.१)। चाहेमनुष्य की इन्चारहे या नरहे।