पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८

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श्रीगणेशाय नमः । ॐतत्सत् । श्रीमद्भगवद्गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। पहला प्रकरण विषयप्रवेश। नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवी सरस्वती व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ * महाभारत, आदिम श्लोक। श्रीमनगवद्गीता हमारे धर्मग्रंथों में एक अत्यन्त तेजस्वी और निर्मल होरा है। 'पिंड-ब्रमोड-ज्ञानसहित प्रात्मविद्या के गूढ़ और पवित्र तत्त्वों को थोड़े में और स्पष्ट रीति से समझा देनेवाला, उन्हीं तत्त्वों के आधार पर मनुष्यमात्र के पुरुपार्थ की अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णावस्था की पहचान करा देनेवाला, भक्ति और ज्ञान का मेल कराके इन दोनों का शास्त्रोक्त व्यवहार के साथ संयोग करा देने- वाला और इसके द्वारा संसार से दुःखित मनुष्य को शान्ति दे कर उसे निष्कान कर्तव्य के आचरण में लगानेवाला गीता के समान बालबोध ग्रंथ, संस्कृत की कौन कह, समस्त संसार के साहित्य में नहीं मिल सकता । केवल काव्य की ही दृष्टि से यदि इसकी परीक्षा की जाय तो भी यह ग्रंथ उत्तम कान्यों में गिना जा सकता है, क्योंकि इसमें सातमज्ञान के अनेक गूद सिद्धान्त ऐसी प्रासादिक भाषा में लिखे गये हैं कि वे बूढ़ी और बच्चों को एक समान सुगम हैं और इसमें ज्ञानयुक्त भाकिरस भी भरा पड़ा है। जिस ग्रंथ में समस्त वैदिक धर्म का सार स्वयं श्रीकृष्ण भगवान् की वाणी से संगृहीत किया गया है उसकी योग्यता का वर्णन कैसे किया जाय ? महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीत कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से

  • नारायण को, मनुष्यों में जो श्रेष्ठ नर है उसको, सरस्वती देवी को और

व्यासजी को नमस्कार करके फिर 'जय' अर्थात महाभारत को पढ़ना चाहिये-