पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४३३

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सृष्टि में टस नियम कायह रूपान्तर है कि "जैसे को तैसा होना चाहिये । वे माय- रण लोग, कि जिनको शुद्धि साम्यावस्या में पहुंच नहीं गई है, इस कमविपाक के नियम के विषय में अपनी ममत्व बुदि टत्पन्न कर लेते हैं, और क्रांघ से अपना देप से प्राघात की अपेक्षा अधिक प्रत्यावात करके आघात का बदला लिया करते है; अथवा अपने से दुयले मनुष्य के साधारण या कारसनिक अपराध के लिये प्रतिकार-वृद्धि के निमित्त से उसको लूट कर अपना फायदा कर लेने के लिये सदा प्रवृत्त होते हैं। किन्तु साधारण मनुष्यों के समान बदला मनाने की, वर, थभिमान की, क्रोध से-लीम सेन्या द्वेप से दुबलों को लूटने की अयवा टेक से अपना मिमान,शेखी, सत्ता, और शक्ति की प्रदर्शिनी दिखलाने की बुद्धि जिसके मन में न रहे. उसको शान्त, निवर और समबुद्धि वैसे ही नहीं रिगड़ती है जैसे किसने ऊपर गिरी हुई गेंद को सिर्फ पीढ़ लौटा देने से बुद्धि में, कोई भी विकार नहीं र. जता; और लोकसंग्रह की दृष्टि से ऐसे प्रत्याघात स्वरूप कर्म करना उसका घनश्यांद कर्तव्य हो जाता है कि, जिसमें दुष्टों का दबदबा बढ़ कर कहीं गरीयों पर अत्याचार न होने पाचे (गी. ३.२५) गीता सारे उपदेश का सार यही है कि एस प्रसंग पर समबुद्धि से किया हुआ घोर युद्ध भी धम्य और श्रेयस्कर है। वरमाव न स्वत्र सब से बर्तना. दुष्टों के साथ दुष्ट न बन जाना, गुस्सा करनेवाले पर वजन होना आदि धर्मतच स्थितन कर्मयोगी को मान्य तो हैं परन्तु संन्यासमार्ग का यह मन कर्मयोग नहीं मानता कि निर' शब्द का अर्थ केवल निष्क्रिय अथवा प्रतिकार शून्य है, किन्तु वह निर शब्द का सिर्फ इतना ही अयं मानता है कि वर अर्थात् मन को दुष्ट बुद्धि छोड़ देनी चाहिये और जब कि कर्म किसी के जूटने में ही नहीं, तब उसका कथन है कि सिर्फ लोकसंग्रह के निये अथवा प्रतिकाराय जिन कर्म भावश्यक और शत्य हो, उतने कर्म मन में दुष्टबुद्धि को स्थान न दे कर, केवल कतन्य समम वैराग्य और निःसन बुद्धि से करते रहना चाहिये (गी. इ. )। अतः इस श्लोक (गी. ११.५५) न सिर्फ निवर' पद का प्रयोग न करते हुप- मकर्मकृत् मन्दरमो मद्रतः संगवनितः । निवरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ उसके पूर्व ही इस दुसरे महत्व के विशेपण का भी प्रयोग करके-कि, 'मक- कृत् ' अथात् 'मेरे यानी परमेश्वर के प्रीत्यर्य, परमेश्वरापण बुद्धि से सारे कर्म करने भगवान् ने गीता में निवैरत्व और कर्म का, मति की दृष्टि से, मेन्न मिला दिया है। इसी ले शारमान्य तथा अन्य टीकाओं में भी कहा है कि इस श्लोक में पूरे गीताशास्त्र का निचोड़ या गया है। गीता में यह कहीं भी नहीं दत. लाया कि बुद्धि को निरे करने के लिये, या उसके निवर हो चुकने पर भी सभी प्रकार के कर्म छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार प्रतिकार का कम निवरत्न और परमेश्वरारंगह- बुद्धि से करने पर, को को टसका कोई भी पार या दीप तो लगना ही नहीं, वाला