पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६६

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भक्तिमार्ग। ४२७ ज्ञान भी करा देते हैं (गी. ७. २१, १०.१०)। इसी ज्ञान से-न कि केवल कोरी और अन्ध श्रद्धा से भगवद्भक्त को अन्त में पूर्ण सिद्धि मिल जाती है। भकि- मार्ग से इस प्रकार ऊपर चढ़ते पढ़ते अन्त में जो स्थिति प्राप्त होती है वह, और ज्ञानमार्ग से प्राप्त होनेवाली अन्तिम स्थिति, दोनों एक ही समान हैं। इसलिये गीता को पढ़नेवालों के ध्यान में यह यात सहज ही आ जाया कि यारहवें अध्याय में भक्तिमान पुरुष की अन्तिम स्थिति का जो वर्णन किया गया है, वह दूसरे अध्याय में किये गये स्थितप्रज्ञ के वर्णन ही के समान है। इससे यह बात प्रगट होती है, कि यद्यपि प्रारम्भ में ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग मिस हाँ, तथापि जन कोई अपने अधिकार-भेद के कारण ज्ञानमार्ग से या भक्तिमार्ग से चलने लगता है, तब अन्त में ये दोनों मार्ग एकत्र मिल जाते हैं और जो गति ज्ञानी को प्राप्त होती है वही गति भक्त को भी मिला करती है। इन दोनों मागी में भेद सिर्फ इतना ही है कि ज्ञानमार्ग में प्रारम्भ ही से बुद्धि के द्वारा परमंधर-स्वरूप का माफलन करना पड़ता है, और भकिमार्ग में यही स्वरूप श्रद्धा की सहायता से ग्रहण कर लिया जाता है। परन्तु यह प्राथमिक भेद प्रागे नष्ट हो जाता है; और भगवान् स्वयं कहते हैं, कि- श्रद्धावान् लभते शानं तत्परः संयतेंद्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शांति अचिरेणाधिगच्छति ॥ अर्थात् "जव श्रद्धावान मनुष्य इन्द्रियनिग्रह-बारा ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता तब उसे ब्रह्मात्मैक्यरूप-ज्ञान का अनुभव होता है और फिर उस शान से उसे शीघ्र ही पूर्ण शांति मिलती है" (गी. ४.३९); अथवा- भक्तया मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः । ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनंतरम् ॥ अर्थात् "मेरस्वरूप का ताविक ज्ञान भक्ति से होता है; और जय यह ज्ञान हो जाता है तव (पहले नहीं) वह भक्त मुझमें प्रा मिलता है" (गी. ८.५५ और ११.५४ भी देखिये)। परमेश्वर का पूरा ज्ञान होने के लिये इन दो मार्गों के सिवा कोई तीसरा मार्ग नहीं है। इसलिये गीता में यह बात स्पष्ट रीति से कह दी गई है, कि जिसे न तो स्वयं अपनी बुद्धि है और न श्रन्हा, उसका सर्वथा नाश ही समझिये- अज्ञवा- श्रधानश्च संशयात्मा पिनश्यति" (गी. १.४.)। ऊपर कहा गया है कि श्रद्धा और भक्ति से अन्त में पूर्ण प्रक्षात्मक्यज्ञान प्राप्त होता है। इस पर कुछ तार्किकों की यह दलील है कि यदि भक्तिमार्ग का इस शोक के अमि' उपसर्ग पर जोर देकर शाण्डिल्यसूल (सू. १५) में यह दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि भक्ति, शान का साधन नहीं है किंतु वह स्वतंत्र साध्य या निछा है। परन्तु यह भर्थ अन्य सांप्रदायिक अर्थों के समान आग्रह या है-- सरल नहीं है।