पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 भक्तिमार्ग। ४२४ के अनुभवात्मक ज्ञान से ही अन्त में मोक्ष मिलता है"-ह सिद्धान्त दोनों मार्गों में एकही सा बना रहता है। यही क्यों, बल्कि अध्यात्म-प्रकरण में और कर्मविपाक प्रकरण में पहले जो और सिद्धान्त बतलाये गये हैं वे भी सब गीता के भक्तिमार्ग में कायम रहते हैं। उदाहरणार्थ, भागवतधर्म में कुछ लोग इस प्रकार चतुर्दूहरूपी सृष्टि की उत्पत्ति बतलाया करते हैं, कि घासुदेवरूपी परमेवर से लपणरूपी जीव उत्पन्न हुआ और फिर सर्पण से प्रद्युन्न अर्थात् मन तथा प्रद्युम्न से अनिरुद्ध अर्थात् अहंकार हुआ; कुछ लोग तो इन चार व्यूहों में से तीन, दो या एकही को मानते हैं। परन्तु जीव की उत्पत्ति के विषय में ये मत सच नहीं हैं। उपनिषदों के आधार पर वेदान्तसूत्र (२.३. १७; और २.२.४२-४५ देखो) में निश्चय किया गया है, कि आध्याम-दृष्टि से जीव सनातन परमेश्वर ही का सनातन अंश है। इसलिये भगवद्गीता में केवल भकिमार्ग की उक्त चतुर्गृह-सम्बंधी कल्पना छोड़ दी गई है और जीव के विषय में वेदान्तसूत्रकारों का ही उपर्युक्त सिद्धान्त दिया गया है (गी. २. २४, ८.२०, १३. २२ और १५. ७ देखो)। इससे यही सिद्ध होता है कि वासुदेव-भक्ति और कर्मयोग ये दोनों तत्व गीता में यद्यपि मागवत- धर्म से ही लिये गये हैं, तथापि क्षेत्रज्ञरूपी जीव और परमेश्वर के स्वरूप के विषय में अध्यात्मज्ञान से भिन्न किसी अन्ध और अट-पटाँग कल्पनाओं को गीता में स्थान नहीं दिया गया है। अब यद्यपि गीता में भक्ति और अध्यात्म, अथवा श्रद्धा और ज्ञान का पूरा पूरा मेल रखने का प्रयत्न किया गया है। तथापि यह स्मरण रहे कि जब अध्यात्मशास्त्र के सिन्हान्त भक्तिमार्ग में लिये जाते हैं, तब उनमें कुछ न कुछ शब्द-भेद अवश्य करना पड़ता है और गीता में ऐसा भेद किया भी गया है। ज्ञान-मार्ग के और भक्तिमार्ग के इस शब्द-भेद के कारण कुछ लोगों ने भूल से समझ लिया है कि गीता में जो सिद्धान्त कभी भक्ति की दृष्टि से और कभी ज्ञान की ष्टि से कहे गये हैं उनमें परस्पर विरोध है, अतएव उतने भर के लिये गीता असम्बद्ध है। परन्तु हमारे मत से यह विरोध वस्तुतः सच नहीं है और हमारे शास्त्रकारों ने अध्यात्म तथा भक्ति में जो मेल कर दिया है उसकी भोर ध्यान न देने से ही ऐसे विरोध दिखाई दिया करते हैं। इसलिये यहाँ इस विषय का कुछ अधिक खुलासा कर देना चाहिये । अध्यात्मशास्त्र का सिद्धान्त है कि पिण्ड और ब्रह्माण्ड में, एकही प्रात्मा नाम-रूप से आच्छादित है, इसालये अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से हम लोग कहा करते है, कि “जो आत्मा मुझमें है, वही सब प्राणियों में भी है - • सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि (गी. ६. २९) अथवा “यह सब आत्मा ही है "-इदं सर्वमान्मैव । परन्तु भक्तिमार्ग में अव्यक्त परमेन्धर ही को पत पामेधंर का स्वरूप प्राप्त हो जाता है, अतएव अब उक सिद्धान्त के बदले गीता में यह वर्णन पाया जाता है कि "यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति "-मैं (भगवान्) सब प्राणियों में हूँ और सब प्राणी मुझमें है (६. २९) अथवा " वासुदेवः समिति "~जो कुछ है यह सब वासु-