पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४६८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। ‘पादन किया गम है। परन्तु इस रीति से गीता का जो अयं किया गया है, वह गीता के उपक्रमापसंहार के अत्यन्त विरुद्ध प्रार, इस अन्य में हमने स्थानस्थान पर सर नीति से दिखला दिया है, कि गोतामेकमयांग को गौण तथा संन्यास की प्रधान माना वैसा ही अनुचित है। जैसे को घर के मालिक कोई तो बसीक घर मे पाहुना फहद और पाहुने को घर का मालिक ठहा दे। जिन लोगों का मत कि गीता में केवल वेदान्त, केवल भक्ति या सिर्फ पातंजलयोग ही का प्रतिपादन किया गया है, उनके इन मतों का खराडन हम कर हो चुके हैं। गीता में कौनजी बात नहीं? वैदिक धर्म में माद- प्राति के जितने साधन या मार्ग हैं, उनमें से प्रत्येक मार्ग का कुछ न कुछ भाग गीत में है। और इतना होने पर भी, भूतभूत च भूतायो' (गो. ९.५) के न्याय से गीत का सचारहस्य इनसब-भागों की अपेक्षा मित्र ही है। संन्यास-मार्गप्रयात उपनिषदों का यह ताव गीता को ग्राहा है कि ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं परन्तु उसे निष्काम-कर्म के साप नोड़ देने के कारण गीता प्रतिपादित भागवतधर्म में ही यात-धर्म का भी सहज ही समावेश शेगया है। तथापि गीता में संन्यास और राम्य का अर्थ या नहीं किया है कि कमों को छोड देना चाहिये किन्तु यह कहा है कि केवल फलाशा का ही त्याग करने में सच्चा वैराग्य या संन्यास है और अन्त में सिद्धान्त किया है, कि पानपत्कातों के कम-संन्यास की अपेक्षा निकारकर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मकांडी मीमांसकों का यह मत भी गीता को मान्य है, कि यदि यज्ञ के लिये ही बदविहित यज्ञयागादिक कमों का आचरगा किया नाव वो वै बन्धक नहीं होते । परन्तु 'यज्ञ' शब्द का अर्थ विस्तृत करकं गीता ने र मत में यह सिद्धान्त और जोड़ दिया है, कि यादे फलाया का त्याग कर सब कर्म किये ना तो यही एक बड़ा भारी यह हो जाना है। इसालये मनुष्य का यही कर्तव्य है कि वह वगाश्रम-विदित सय कमी को केवल निष्काम बुद्धि से सदैव करता रहे । सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम के विषय में उपनिषकारों के मत की अपेक्षा सांख्यों का मत गीता में प्रधान माना गया है, तो भी प्रकृति और पुरुष तक ही नठहर कर, सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम की परम्परा उपनिपदों में वर्णित नित्य परमात्मा पर्यन्त ले जाकर मिड़ा दी गई है। केवल त्रुद्धि के द्वारा अध्यात्मज्ञान का प्राप्त कर सेना क्लेशदायक है, इसालय भागवत या नागयीय धर्म में यह कहा इं, किस्से भक्ति और श्रद्धा के द्वारा प्राप्त कर लेना चाहिये । इस चापुदेव भनि की विधि का वर्णन गीता में भी किया गया है । परन्तु इस विषय में भी भागवत-धर्म की सब अंशों में कुछ नकल नहीं की गई है, वरन् भागवतधर्म में वर्णित जीव के उत्पत्ति विषयक इस मत को वेदान्तसूत्रों की नाई गीता ने मी त्याज्य माना है, कि वासुदेव से संकर्षण या जीव उत्पन्न हुआ है और, भागवतधर्म में वर्णित भक्ति का तथा पनिपदों के क्षेत्रक्षेत्रा-सम्बन्धी सिद्धान्त का पूरा पूरा मेल कर दिया है । इसके सिवा मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा साधन पातंजलयोग है। यद्यपि गीता का कहना यह नहीं, कि पातजलयोग ही जीवन का मुख्य कर्तव्य है। तथापि गीता यह कहती है, कि बुद्धि को सम करने के लिये इन्द्रिय-निग्रह करने की आवश्यकता है, इसलिये