पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५१९

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्रा का होना भी सम्भव है क्योंकि वाझ सुख की प्राप्ति के लिये जो जो बाह्य साधन आवश्यक है, वे प्रायः दूसरों के सुख को कम किये बिना अपने को नहीं मिल सकते । परन्तु साम्यबुद्धि के विषय में ऐसा नहीं कह सकते । यह आन्तरिक सुख आत्मवश है, अर्थात् यह किसी दूसरे मनुष्य के सुख में बाधा न डालकर प्रत्येक को मिल सकता है। इतना ही नहीं; किन्तु जो आत्मैश्य को पहचान कर सब प्राणियों से समता का व्यवहार करता है, वह गुप्त या प्रगट किसी रीति से भी कोई दुष्कृत्य कर ही नहीं सकता; और, फिर उसे यह बतलाने कीनावश्यकता भी नहीं रहती कि "हमेशा यह देखते रहो कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख किसमें है।" कारण यह है कि कोई भी मनुष्य हो, वह सार-असार-विचार के बाद ही किसी कृत्य को किया करता है। यह बात नहीं, कि केवल नैतिक कमी का निर्णय करने के लिये ही सार-प्रसार विचार की भावश्यकता होती है। सार-असार-विचार करते समय यही महत्व का प्रश्न होता है कि अन्तःकरण कैसा होना चाहिये? क्योंकि सब लोगों का अन्तःकरण एकसमान नहीं होता । अतएव, जब कि यह कह दिया कि " अन्तःकरण में सदा साम्यबुद्धि जागृत रहनी चाहिये;" तब फिर यह बत- लाने की कोई यावश्यकता नहीं, कि अधिकांश लोगों के या सब प्राणियों के हित का सार-प्रसार विचार करो। पश्चिमी पंडित भी अव यह कहने लगे हैं, कि मानव- जाति के प्राणियों के सम्बन्ध में जो कुछ कर्तव्य है वे तो है ही, परन्तु मूक जानवरों के सम्बन्ध में भी मनुष्य के कुछ कर्तव्य है जिनका समावेश कार्य-अकार्य-शास्त्र में किया जाना चाहिये। यदि इसी व्यापक दृष्टि से देखें तो नाम होगा कि अधि- कांश लोगों का अधिक हित" की अपेक्षा " सर्व-भूतहित" शब्द ही अधिक व्यापक और स्पयुक्त है, तया "सान्यन्त्रुद्धि" में इन सभी का समावेश हो जाता है। इसके विपरीत, यदि ऐसा मान लें कि किसी एक मनुष्य की वृद्धि शुद्ध और सन नहीं है तो वह इस बात का ठीक ठीक हिसाव भले ही करले अधिकांश लोगों का अधिक सुख" किसमें है, परन्तु नीतिधर्म में उसकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है। क्योंकि, किसी सत्कार्य की और प्रवृत्ति होना तो शुद्ध मन का गुण या धर्म है-यह काम कुछ हिसायी मन का नहीं है। यदि कोई कहे, कि "हिलाब करनेवाले मनुष्य के स्वभाव या मन को देखने की तुम्हें कोई आवश्य- कता नहीं है, तुम्हें केवल यही देखना चाहिये कि उसका किया हुआ हिसाब सही है या नहीं, अर्थात् दस हिसाब से सिर्फ यह देख लेना चाहिये कि कर्तव्य-अमच्य का निर्णय हो कर तुम्हारा काम चल जाता है या नहीं तो यह भी सच नहीं हो सकता! कारण यह है कि सामान्यतः यह तो सभी जानते हैं कि सुख-दुःख किसे कहते हैं तो भी सब प्रकार के सुख-दुःखों के तारतम्य का हिसाब करते समय पहले यह निश्चय कर सेना पड़ता है कि किस प्रकार के सुख-दुःखों को कितना महत्व देना चाहिये; परन्तु सुख-दुःख की इस प्रकार माप करने के लिये, टपातामापक यंत्र के समान, कोई निश्चित वाल साधन न तो वर्तमान समय में है, और न