पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५३६

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उपसंहार। चाहिये जिससे लोगों का दुःख कम होता जावे । अब तो पश्चिमी देशों में दुःख- निवारणेच्छुक कर्मयोगियों का एक अलग पंथ ही हो गया है। इस पंथ का गीता के कर्मयोगमार्ग से बहुत कुछ साम्य है । जिस स्थान पर महाभारत में कहा गया है, कि " सुखावहुतरं दुःखं जीविते नात्र संशयः " अर्थात् संसार में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है, वहीं पर मनु ने वृहस्पति से तथा नारद ने शुक से न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति । अशोचन्प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम् ॥ " जो दुःख सार्वजनिक है उसके लिये शोक करते रहना उचित नहीं; उसका रोना न रोकर उसके प्रतिकारार्थ (ज्ञानी पुरुषों को) कुछ उपाय करना चाहिये " (शां. २०५.५ और ३३०. १५)। इससे प्रगट होता है कि यह तत्त्व महाभारतकार को भी मान्य है, कि संसार के दुःखमय होने पर भी, उसमें सब लोगों को होनेवाले दुःख को कम करने का उद्योग चतुर पुरुष करते रहें। परन्तु यह कुछ हमारा सिद्धान्त- पक्ष नहीं है। सांसारिक सुखों की अपेक्षा आत्म-बुद्धिप्रसाद से होनेवाले सुख को प्राधिक महत्व देकर, इस आत्म-बुद्धिप्रसादरूपी सुख का पूरा अनुभव करते हुए, केवल कर्त्तव्य समझकर ही(अर्थात् ऐसी राजस अभिमानबुद्धि मन मेंन रखकर कि मैं लोगों का दुःख कम करूँगा) सब त्यावहारिक कर्मों को करने का उपदेश देने वाले गीता के कर्मयोग की बराबरी करने के लिये, दुःख-निवारणेच्छु पश्चिमी कर्मयोग में भी अभी बहुत कुछ सुधार होना चाहिये । प्रायः सभी पाश्चात्य पंडितों के मन में यह बात समाई रहती है, कि स्वयं अपना या सब लोगों का सांसारिक सुख ही मनुष्य का इस संसार में परमसाध्य है चाहे वह सुख के साधनों को अधिक करने से मिले या दुःखों को कम करने से । इसी कारण से उनके शास्त्रों में गीता के निष्काम कर्मयोग का यह उपदेश कहीं भी नहीं पाया जाता, कि यद्यपि संसार दुःखमय है तथापि उसे अपरिहार्य समझकर केवल लोकसंग्रह के लिये ही संसार कर्म करते रहना चाहिये । दोनों कर्ममार्गी हैं तो सही; परन्तु शुद्ध नीति की घष्टि से देखने पर उनमें यही भेद मालूम होता है, कि पाश्चात्य कर्मयोगी सुखेच्छु या दुःखनिवारणेच्छु होते हैं कुछ भी कहा जाय, परन्तु वे इच्छुक अर्थात् 'सकाम' अवश्य ही हैं और, गीता के कर्मयोगी हमेशा फलाशा का त्याग करनेवाले अर्थात् निष्काम होते हैं। इसी बात को यदि दूसरे शब्दों में व्यक्त करें तो यह कहा जा सकता है, कि गीता का कर्मयोग सात्त्विक है और पाश्चात्य कर्मयोग राजस है (देखो गीता १८. २३, २४)। केवल कर्त्तव्य समझ कर परमेश्वरार्पण-बुद्धि से सब कर्मों को करते रहने और उसके द्वारा परमेश्वर के यजन या उपासना को मृत्युपर्यन्त जारी रखने का जो यह गीता-प्रतिपादित ज्ञानयुक्त प्रवृत्ति-मार्ग या कर्मयोग है, इसे ही 'भागवतधर्म' गी. र.६३