पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४०

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उपसंहार। में यदि कुछ अन्तर है भी तो क्या है। और, प्रतीत होता है कि प्रायः इसी शंका को दूर करने के लिये छांदोग्योपनिपद् के भाष्य में प्राचार्य ने लिखा है कि "बौद्ध-यतिधर्म और सांख्यन्यतिधर्म दोनों वेदयास तथा खोटे हैं; एवं हमारा संन्यासधर्म वेदं के आधार से प्रवृत्त किया गया है, इसलिये यही सगा है" (घां. शां. भा. २. २३.१)।जो हो; यह निर्विवाद सिद्ध है कि कलियुग में पहले पहल जैन और बौद्ध लोगों ने ही यति-धर्म का प्रचार किया था। परन्तु बौद्धयतियों ने भी धर्मप्रसार तथा लोकसंग्रह के लिये आगे चलकर उपयुक्त कर्म करना शुरू कर दिया था; और, इतिहास से मालूम होता है कि इनको हराने के लिये श्रीशंकराचार्य ने जो वैदिक यति-संघ तैयार किये थे उन्हों ने भी कर्म को बिलकुल न त्याग कर अपने उद्योग से ही वैदिक धर्म की फिर से स्थापना की । अनन्तर शीघ्र ही इस देश पर मुसलमानों की चढ़ाइयाँ होने लगी; और, जय इस परचक्र से पराक्रमपूर्वक रक्षा करनेवाले तथा देश के धारण-पोषण करनेवाले तमिय राजाओं की फर्तृत्वशक्ति का मुसलमानों के जमाने में हास होने लगा, तय संन्यास और कर्मयोग में से संन्यास- मार्ग ही सांसारिक लोगों को अधिकाधिक प्राय होने लगा होगा, क्योंकि "राम राम " जपते हुए चुप बैठे रहने का एकदेशीय मार्ग प्राचीन समय से ही कुछ लोगों की पुष्टि में श्रेष्ठ समझा जाता था और अब तो तत्कालीन यान परिस्थिति के लिये भी वही मार्ग विशेष सुभीते का हो गया था। इसके पहले यह स्थिति नहीं थी। क्योंकि शूदकमलाकर मैं कहे गये विष्णुपुरागा के निम श्लोक से भी यही मालूम होता है। अपहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः । ते हरेषिणः पापाः धर्मार्थ जन्म यदरेः * अर्थात् " अपने (स्वधर्मोक्त) कमी को छोड़ (केवल) कृष्ण कृपा कहते रहनेवाले लोग हरि के द्वेषी और पापी हैं, क्योंकि स्वयं हरि का जन्म भी तो धर्म की रक्षा करने के लिये ही होता है।" सच पूछो तो ये लोग न तो संन्यासनिष्ठ है और न कर्मयोगी; क्योंकि ये लोग संन्यासियों के समान ज्ञान अथवा. तीन वैराग्य से सव सांसारिक कर्मों को नहीं छोड़ते हैं और संसार में रह कर भी कर्मयोग के अनुसार अपने हिस्से के शास्त्रोक्त कर्तव्यों का पालन निष्काम युद्धि से नहीं करते। इसलिये इन वाचिक संन्यासियों की गणना एक निराली ही तृतीय निष्टा में होनी चाहिये, जिसका वर्णन गीता में नहीं किया गया है । चाहे किसी भी कारण से हो, जय लोग इस तरह से तृतीयप्रकृति के बन जाते हैं, तब आखिर धर्म का भी नाश हुए बिना नहीं रह सकता। ईरान देश से पारसी धर्म के हटाये जाने के लिये भी ऐसी ही स्थिति कारण हुई थी और इसी से हिन्दुस्थान में भी वैदिक • वैवई के छपे हुए विष्णुपुराण में यह शोक हमें नहीं मिला । परन्तु इसका उपयोग कमलाकर सरीखे प्रामाणिक ग्रंथकार ने किया है, इससे यह निराधार भी नहीं कहा जा सकता।