पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५६

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विषयप्रवेश। लोग तो यह भी कहते हैं कि गीता में प्रतिपादित ब्रह्मविद्या यद्यपि मामूली ढंग पर देखने से सुलभ मालूम होती है, तथापि उसका वास्तविक मर्म अत्यन्त गूढ़ है जो बिना गुरु के किसी की भी समझ में नहीं आ सकता (गी. ४.३४)-गीता पर भले ही अनेक टीकाएँ हो जायें, परन्तु उसका गूढार्थ जानने के लिये गुरुदीक्षा के सिवा और कोई उपाय नहीं है! अब यह बात स्पष्ट है कि गीता के अनेक प्रकार के तात्पर्य कहे गये हैं। पहले तो स्वयं महाभारतकार ने भागवत-धर्मानुसारी अर्थात् प्रवृत्तिविषयक तात्पर्य बतलाया है। इसके बाद अनेक पंडित, प्राचार्य, कवि, योगी और भक्त जनों ने अपने अपने संप्रदाय के अनुसार शुद्ध निवृत्तिविषयक तात्पर्य बतलाया है। इन भिन्न भिन्न तात्पर्यों को देख कर कोई भी मनुष्य धबड़ा कर सहज ही यह प्रश्न कर सकता है -क्या ऐले परस्पर विरोधी अनेक तात्पर्य एक ही गीताग्रंथ से निकल सकते हैं ? और, यदि निकल सकते हैं तो, इस भिन्नता का हेतु क्या है ? इसमें संदेह नहीं कि भिन्न भिन्न भाष्यों के प्राचार्य, बड़े विद्वान्, धार्मिक और सुशील थे। यदि कहा जाय कि शंकराचार्य के समान महातत्त्वज्ञानी आज तक संसार में कोई भी नहीं हुआ है तो भी अतिशयोक्ति न होगी। तब फिर इनमें और इनके बाद के आचार्यों में इतना मतभेद क्यों हुआ? गीता कोई इन्द्रजाल नहीं है कि जिससे मनमाना अर्थ निकाल लिया जावे। उपर्युक्त संप्रदायों के जन्म के पहले हीगीता बन चुकी थी। भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश इसलिये दिया था कि उसका श्रम दूर हो, कुछ इसलिये नहीं कि उसका भ्रम और भी बढ़ जाय । गीता में एक ही विशेष और निश्चित अर्थ का उपदेश किया गया है (गी.५.१,२) और अर्जुन पर उस उपदेश का अपेक्षित परिणाम भी हुआ है। इतना सब कुछ होने पर भी गीता के तात्पर्यार्थ के विषय में इतनी गड़बड़ क्यों हो रही है ? यह प्रश्न कठिन है सही, परन्तु इसका उत्तर उतना कठिन नहीं है जितना पहले पहल मालूम पड़ता है। उदाहरणार्थ, एक मीठे और सुरस पकान (मिठाई) को देख कर, अपनी अपनी रुचि के अनुसार, किसी ने उसे गेहूँ का, किसी ने घी का, और किसी ने शकर का बना हुआ बतलाया तो हम उनमें से किसको झूठ समझे ? अपने अपने मता- नुसार तीनों का कहना ठीक है। इतना होने पर भी इस प्रश्न का निर्णय नहीं हुआ कि वह पकान (मिठाई) बना किस चीज़ से है। गेहूँ, घी और शकर से अनेक प्रकार के पकान (मिठाई) वन सकते हैं। परन्तु प्रस्तुत पक्वान्न का निर्णय केवल इतना कहने से ही नहीं हो सकता कि वह गोधूमप्रधान, घृतप्रधान या शर्कराप्रधान है। समुद्र मंथन के समय किसी को अमृत, किसी को विष, किसी को लक्ष्मी, ऐरावत, कौस्तुभ, पारिजात आदि भिन्न भिन्न पदार्थ मिले; परन्तु इतने ही से समुद्र के यथार्थ स्वरूप का कुच निर्णय नहीं हो गया। ठीक इसी तरह, सांप्र- दायिक रीति से गीता-सागर को मथनेवाले टीकाकारों की अवस्था होगई है। दूसरा उदाहरण लीजिये। कंसवध के समय भगवान् श्रीकृष्ण जब रंग-मंडप में 1