पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५६५

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५२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्ट । भाधार पर स्थापित है। और, गीता में भकिमार्ग का जो वर्णन है, वह भी इस ज्ञान से अलग नहीं है । अतएव यहाँ उसको दुवारा न लिख कर संक्षेप में सिर्फ यही बतलाते हैं, कि गीता के द्वितीय अध्याय में वर्णित आत्मा का अशोच्यत्वं, आठवें अध्याय का अक्षरब्रह्म-स्वरूप और तेरहवें अध्याय का क्षेत्र क्षेत्रज्ञ-विचार तथा विशेष करके 'ज्ञेय' परब्रह्म का स्वरूप-इन सब विषयों का वर्णन गीता में अक्षरशः उपनिषदों के आधार पर ही किया गया है । कुछ उपनिषद् गद्य में हैं और कुछ पद्य में हैं। उनमें से गद्यात्मक उपनिषदों के वाक्यों को पद्यमय गीता में ज्यों का त्यों उद्धृत करना सम्भव नहीं; तथापि जिन्हों ने छांदोग्योपनिषद् आदि को पढ़ा है उनके ध्यान में यह बात सहज ही आ जायगी, कि "जो है सो है, और जो नहीं सो नहीं" (गी. २. १६) तथा " यं यं वापि स्मरन् भावं." (गी.८.६), इत्यादि विचार छांदोग्योपनिषद से लिये गये हैं और "क्षीणे पुण्ये." (गी. ६. २१)," ज्योतिषां ज्योतिः" (गी. १३. १७) तथा “मावास्पर्शाः " (गी. २. १४) इत्यादि विचार और वाक्य वृहदारण्यक उपनिषद से लिये गये हैं । परन्तु गद्य उपनिषदों को छोड़ जव हम पद्यात्मक उपनिषदों पर विचार करते हैं, तो यह समता इससे भी अधिक स्पष्ट व्यक हो जाती है। क्योंकि, इन पद्यात्मक उपनि- पदों के कुछ श्लोक ज्यों के त्यों भगवद्गीता में उद्धृत किये गये हैं । उदाहरणार्थ, कठोपनिषद के छः सात श्लोक, अक्षरशः अथवा कुछ शब्द-भेद से, गीता में लिये गये हैं। गीता के द्वितीय अध्याय का “ आश्चर्यवत्पश्यति० " (२.२६) श्लोक, कठोपनिषद की द्वितीय वल्ली के " आश्चर्यो वक्ता० " (कठ. २. ७) श्लोक के समान है और “ न जायते म्रियते वा कदाचित् " (गी. २. २०) श्लोक तथा " यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति० " (गी. ८.११)श्लोकाध, गीता और कठोपनिषद में, भक्षरक्षः एक ही है (कठ. २. १६, २. १५)। यह पहले ही वतला दिया गया है, कि गीता का " इंद्रियाणि पराण्याहुः०५ (३.४२) श्लोक कोप- निषद (कर. ३. १०) से लिया गया है। इसी प्रकार गीता के पंद्रहवें अध्याय में वर्णित अश्वत्थ-वृक्ष का रूपक कठोपनिषद से, और " न तद्भासयते सूर्यो." (गी. १५.६) श्लोक क तथा श्वेताश्वतर उपनिषदों से, शब्दों में कुछ फेरफार करके, लिया गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद की बहुतैरी कल्पनाएँ तथा श्लोक भी गीता में पाये जाते हैं। नवें प्रकरण में कह चुके हैं, कि माया शब्द का प्रयोग पहले पहले घेताश्वतरोपनिषद में हुआ है और वहीं से वह गीता तथा महाभारत में लिया गया होगा। शन्द-सादृश्य से यह भी प्रगट होता है, कि गीता के छठवें अध्याय में योगाभ्यास के लिये योग्य स्थल का जो यह वर्णन किया गया है-“शुचौ देशे प्रतिष्ठाण्य०" (गी ६.११)वह " समे शुचौ० " आदि (श्वे. २. १०) मन्त्र से लिया गया है और " समं कायशिरोपी०" (गी. ६. १३) ये शब्द “बिह- अतं स्थाप्य समं शरीरम् " (श्वे. २.८) इस मन्त्र लिये गये हैं। इस प्रकार " सर्वतः पाणिपादं श्लोक तथा उसके भागे का श्लोकाई भी गीता (१३.