पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाग २-गीता और उपनिषद । श्वतरोपनिषद् या कठोपनिषद् के साथ गीता अधिक मिलती जुलती है। ध्यानविन्दु, कुरिका और योगतत्व उपनिषद् भी योगविषयकं ही है। परन्तु उनका मुख्य प्रतिप्राय विषय केवल योग है और उनमें सिर्फ योग ही की महत्ता का वर्णन किया गया है, इंसलिये केवल फर्मयोग को श्रेष्ठ माननेवाली गीता से इन एकपक्षीय उपनिषदों का मेज करना उचित नहीं और न वह हो ही सकता है। थामसन साहब ने गीता का अंग्रेजी में जो अनुवाद किया है उसके उपोद्घात में आप कहते हैं, कि गीता का कर्मयोग पातजल-योग ही का एक रूपान्तर है परन्तु यह यात असंभव है। इस विषय पर हमारा यही कथन है, कि गीता के योग' शब्द का ठीक ठीक मर्थ समझ में न आने के कारण यह भ्रम उत्पन्न हुआ है। क्योंकि इधर गतिा का कर्मयोग प्रवृत्ति प्रधान है तो उधर पातंजल योग विलकुल उसके विरुद्ध मथात निवृत्ति प्रधान है । अतएव उनमें से एक का दूसरे से पाभूत होना कभी संभव नहीं और न यह बात गीता में कहीं कही गई है। इतना ही नहीं यह भी कहा जा सकता है, कि योग शब्द का प्राचीन अर्थ 'कर्मयोग' ही था और सम्भव है कि वही शन्द, पातंजलसूत्रों के अनंतर, केवल 'चित्त-निरोधरूपी योग' के अर्थ में प्रचलित हो गया हो । चाइ जो हो; यह निर्विवाद सिद्ध है, कि प्राचीन समय में जनक प्रादि ने जिस निष्काम कर्माचरण के मार्ग का अवलयन किया था उसी के सश गीता का योग अर्थात् कर्ममार्ग भी है और वह मनु-इक्ष्वाकु आदि महानु- भावों की परंपरा से चले तुप भागवत-धर्म से लिया गया है वह कुछ पातंजल गय से उत्पन्न नहीं हुआ है। अय तक किये गये विवेचन से यह यात समझ में आ जायगी, की गीता-धर्म और उपनिपदों में किन किन यातों की विभिन्नता और समानता है। इनमें से अधि- कांश घातों का विवेचन गीता-रहस्य में स्थान स्थान पर किया जा चुका है। अतएव यहाँ संक्षेप में यह बतलाया जाता है, कि यद्यपि गीता में प्रतिपादित ब्रह्मज्ञान उपनिषदों के आधार पर ही बतलाया गया है; तथापि उपनिपदों के अध्यात्मज्ञान का ही निरा भनुवाद न कर, उसमें वासुदेवभाक्ति का और सांख्यशास्त्र में वर्णित सृष्ट्युत्पत्तिकम का अर्थात् चराक्षर-ज्ञान का भी समावेश किया गया है। और, उस वैदिक कर्मयोग-धर्म ही का प्रधानता से प्रतिपादन किया गया है, जो सामान्य लोगों के लिये आचरण करने में सुगम हो एवं इस लोक तथा परलोक में श्रेयस्कर हा। उपनिपदों की अपेक्षा गाता में जो कुछ विशेषता है वह यही है अतएष ब्रह्म ज्ञान के अतिरिक अन्य बातों में भी संन्यास प्रधान उपनिपदों के साथ गीता का मेल करने के लिये सांप्रदायिक दृष्टि से गीता के अर्थ की खींचा-तानी करना उचित नहीं है। यह सच है कि दोनों में अध्यात्मज्ञान एक ही सा है। परंतु-जैसा कि हमने गीता-रहस्य के ग्यारहवें में प्रकरण में स्पष्ट दिखला दिया है-अध्यात्मरूपी मस्तक एक भले हो; तो भी सांख्य तथा कर्मयोग वैदिकधर्म-पुरुष के दो समान बनवाले हाथ हैं और इनमें से, ईशावास्योपनिषद् के अनुसार, ज्ञानयुक्त कर्म ही का प्रतिपादन मुक्तकंठ से गीता में किया गया है।