पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६४७

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गातारहस्य अथवा कमयागशाला संजय उवाच । 8 दृष्ट्वा तु पांडवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २॥ पश्यैतां पांडपुत्राणामाचार्य महती चमूम् । न्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥ अत्र शूरा महेवासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ ४॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । पुरुजित्कुंतिभोजश्च शैन्यश्च नरपुंगवः ॥ ५॥ युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥६॥ चित्र में जो लोग तप करते करते, या युद्ध में, मर जावेंगे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी, तब उसने इस क्षेत्र में हल चलाना छोड़ दिया (ममा. शल्य. ५३)। इन्द्र के इस वरदान के कारण ही यह क्षेत्र धर्म क्षेत्र या पुण्य-क्षेत्र कहलाने लगा । इस मैदान के विषय में यह कथा प्रचलित है, कि यहाँ पर परशुराम ने इक्कीस बार सारी पृथ्वी को निःक्षत्रिय करके पितृ-तर्पण किया था; और प्रा. चीन काल में भी इसी क्षेत्र पर दी बड़ी लड़ाइयाँ हो चुकी हैं।] सञ्जय ने कहा-(२) उस समय पाण्डवों की सेना को न्यूह रच कर (खड़ी) देख, राजा दुर्योधन (होगा) आचार्य के पास गया और उनसे कहने लगा, कि- [महाभारत (मना. भी. ६.४-७; मनु. ७. १६1) के उन अध्यायों में, कि नो गीता से पहले लिखे गये हैं, यह वर्णन है कि जय कौरवों की सेना का भीम द्वारा रचा हुआ ब्यूह पाण्डवों ने देखा और जब उनको अपनी सेना कम देख पड़ी, तब उन्होंने युद्धविद्या के अनुसार वज्र नामक व्यूह रचकर अपनी सेना खड़ी की । युद्ध में प्रतिदिन ये व्यूह बदला करते थे।] (३) हे प्राचार्य ! पाराहपुत्रों को इस बड़ी सेना को देखिये, कि जिसकी व्यूह रचना तुम्हारे बुद्धिमान् शिप्य द्रुपद-पुत्र (सृष्टद्युम्न) ने की है । (२) इसमें शूर, महाधनुर्धर, और युद्ध में भीम तथा अर्जुन सरीखे युयुधान (सात्यकि), विराद और महारथी द्रुपद, (५) धृष्टकेतु, चकितान और वीर्यवान् काशिराज, पुरुजित कुन्तिभोज और नरश्रेष्ट शैव्य, (६) इसी प्रकार पराक्रमी युधामन्यु और वीर्यशाली चमौजा, पुत्र सुभद्रा के पुत्र (भभिमन्यु), तथा द्रौपदी के (पाँच) पुत्र-ये समी महारथी है। [दश हज़ार धनुर्धारी योद्धाओं के साथ अकेले युद्ध करनेवाले को महा- रियो कहते हैं। दोनों ओर की सेनाओं में जो रथी, महारथी अथवा प्रति.