पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६६५

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६२६. गीवारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कथं स पुरुषः पार्थ के घातयति हन्ति कम् ॥ २१ ॥ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीणान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥२२॥ नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैन क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥ अच्छेद्योऽयमदाहोऽयमक्लेद्योऽशोग्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥२४॥ अध्यक्तोऽयमाचिंत्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥ 88 अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । पार्थ! जिसने जान लिया, कि यह आत्मा प्राविनाशी, नित्य, अज और अव्यय है, यह पुरुष किसी को कैसे मरवावेगा और किसी को कैसे मारेगा ? (२२) जिस प्रकार (कोह) मनुष्य पुराने वस्रों को छोड़ कर नये ग्रहण करता है, उसी प्रकार देहीअर्थात शरीर का स्वामी आत्मा पुराने शरीर त्याग कर दूसरे नये शरीर धारण करता है। H [घन की यह उपमा प्रचलित है। महाभारत में एक स्थान पर, एक घर (शाला) छोड़ कर दूसरे घर में जाने का दृष्टान्त पाया जाता है (शां. ५. १५६); और एक अमेरिकन अन्यकार ने यही कल्पना पुस्तक में नई जिल्द बाँधने का दृष्टान्त देकर व्यक्त की है। पिछले तेरहवें श्लोक में बालपन, जवानी और बुढ़ापा, इन तीन अवस्थामों को जो न्याय उपयुक्त किया गया है, वहीं अब सब शरीर के विषय में किया गया है।] (२५) इसे अर्थात् आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसे आग जला नहीं सकती, वैसे ही इसे पानी भिगा या गला नहीं सकता और वायु सुखा भी नहीं सकती है। (२४) (कभी भी)न कटनेवाला, न जलनेवाला, न भीगनेवाला और न सूखने. वाला यह (आत्मा) नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन अर्थात चिन्तन है। (२५) इस आत्मा को ही अन्यक (अर्थात् जो इन्द्रियों को गोचर नहीं हो सकता), अचिन्त्य (अर्थात् जो मन से भी जाना नहीं जा सकता), और अविकारी (अर्थात जिसे किसी भी विकार की उपाधि नहीं है) कहते है । इसलिये इसे (मात्मा को) इस प्रकार का समझ कर, उसका शोक करना तुझ को उचित नहीं है। [यह वर्णन उपनिपदों से लिया गया है। यह वर्णन निर्गुण आत्मा का है, सगुण का नहीं। क्योंकि अविकार्य या अचिन्त्य विशेषण सगुण को लग नहीं सकते (गीतारहस्य प्र. देखो)। आत्मा के विषय में वेदान्तशास्त्र का जो अन्तिम, सिद्धान्त है, उसके आधार से शोकन करने के लिये यह उपानि बतलाई गई है। अब कदाचित् कोई ऐसा पूर्वपन करे, कि हम आत्मा को नित्य नई समझते, इसलिये तुम्हारी उपपचि इमें ग्राह्य नहीं तो इस पूर्वपक्ष का प्रथम ग्लेख करके भगवान उसका यह उत्तर देते हैं, कि-]