पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/६९१

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६५२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। 88 यक्षार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थ कर्म कौतेय मुक्तसंगः समाचार ॥९॥ () यज्ञ के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उनके अतिरिक्त, अन्य कमा से यह जोक बँधा हुआ है। तदर्थ अर्थात् यज्ञार्थ (किये जानेवाले) कर्म (भी) तू मासति या फलाशा छोड़ कर करता जा। I [इस श्लोक के पहले चरण में मीमांसकों का और दूसरे में गीता का सिद्धान्त बतलाया गया है। मीमांसकों का कथन है कि जब वेदों ने ही यज्ञ- यागादि कर्म मनुष्यों के लिये नियत कर दिये हैं और जब कि ईश्वरनिर्मित सृष्टि का व्यवहार ठीक ठीक चलते रहने के लिये यह यज्ञ-चक्र आवश्यक है तब कोई भी इन कर्मों का त्याग नहीं कर सकता; यदि कोई इनका त्याग कर देगा तो समझना होगा कि वह श्रौतधर्म से वञ्चित हो गया । परंतु कमावपाक, प्रक्रिया का सिद्धान्त है कि प्रत्येक कर्म का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इसके अनुसार कहना पड़ता है, कि यज्ञ के लिये मनुष्य जो जो कर्म करेगा उसका भला या बुरा फल भी उसे भोगना ही पड़ेगा । मीमांसकों का इस पर यह उत्तर है कि, वेदों की ही आज्ञा है कि 'यज्ञ' करना चाहिये, इसलिये यज्ञार्थ जो नो कर्म किये जावेंगे वे सब ईश्वरसम्मत होंगे; अतः उन कमों से कर्ता बद्ध नहीं हो सकता । परंतु यज्ञों के सिवा दूसरे कामों के लिये-उदाहर- णार्थ केवल अपना पेट भरने के लिये,-मनुष्य जो कुछ करता है वह, यज्ञार्थ नहीं हो सकता; उसमें तो केवल मनुष्य का ही निजी लाम है। यही कारण है जो मीमांसक उसे 'पुरुपार्थ कर्म कहते हैं, और उन्हों ने निश्चित किया है कि ऐसे यानी यज्ञार्थ के अतिरिक्त अन्य कर्म अर्थात् पुरुषार्थ कर्म का जो कुछ भला या बुरा फल होता है वह मनुष्य को भोगना पड़ता है यही सिद्धान्त उक श्लोक की पहली पंकि में है (देखो गीतार. प्र..३. पृ. ५२-५५) । कोई कोई टीकाकार यज्ञ-विष्णु ऐसा गौण अर्थ करके कहते हैं कि यज्ञार्थ शब्द का अर्थ विष्णुप्रीत्यर्थ या परमेश्वरार्पणपूर्वक है। परंतु हमारी समझ में यह अर्थ खींचा- तानी का और क्लिष्ट है। यहाँ पर प्रश्न होता है कि यज्ञ के लिये जो कर्म करने पड़ते हैं, उनके सिवा यदि मनुष्य दूसरे कर्म कुछ भी न करे तो क्या वह कर्मबंधन से छूट सकता है ? क्योंकि यज्ञ मी तो कर्म ही है और उसका स्वर्ग- प्रातिरूप जो शास्त्रोक फल है वह मिले विना नहीं रहता । परंतु गीता के दूसरे ही अध्याय में स्पष्ट रीति से बतलाया गया है कि यह स्वर्ग-प्राप्तिरूप फल मोच- प्राप्ति के विरुद्ध है (देखो गी. २-४०-४४, और ६.२०, २१)। इसी लिये उक्त श्लोक के दूसरे चरण में यह बात फिर वतलाई गई है कि मनुष्य को यज्ञार्थ जो कुछ नियत कर्म करना होता है उसे भी वह फल की आशा छोड़ कर अर्थात् केवल कर्त्तन्य समझ कर, करे और इसी अर्थ का प्रतिपादन आगे साविक