पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७१५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । स बुद्धिमान्मनुष्यपु स युसः काकर्मकृत् ॥ १८ ॥ में कर्मत्याग, कर्म और कर्ता के त्रिविध भेद-वर्णन में पूरी कर दी गई है (गी. 4.1-07 2. २२-२५; १८, २६-२८)। यहाँ संक्षेप में स्पष्टतापूर्वक यह वतना देना शावश्यक है, कि दोनों स्थलों के कर्म-विवचन से कर्म, अकर्म और विकर्म के सम्बन्ध में गीता के सिद्धान्त क्या हैं। क्योंकि टीशकारों ने इस सम्बन्ध में बड़ी गड़बड़ कर दी है। संन्यासमार्गवालों को सत्र कर्मों का स्वरूपतः स्याग इष्ट है, इसलिये वै गीता के प्रकर्म' पद का अर्थ खींचातानी से अपने मार्ग की और लाना चाहते हैं । मीमांसकों को यज्ञ-याग प्रादि काम्य कर्म इष्ट हैं, इसलिये उन्हें इनके अतिरिक और सभी कर्म विकर्म जंचते हैं। इसके सिवा मीमांसकों के नित्य-नैमित्तिक श्रादि कर्म भेद भी इसी में भा जाते हैं और फिर इसी में धर्मशास्त्री अपनी ढाई चावलं की खिचड़ी पकाने की इच्छा रखते हैं। सारांश, चारों और से ऐसी खींचातानी होने के कारण अन्त में यह जान लेना कठिन हो जाता है, कि गीता अकर्म किसे कहती है और विकर्म' किसे । अतएव पहले से ही इस बात पर ध्यान दिये रहना चाहिये, कि गीता में जिस तात्विक दृष्टि से इस प्रश्न का विचार किया गया है, वह दृष्टि निष्काम कर्म करनेवाले कर्मयोगी की है। काम्य कर्म करनेवाले मीमांसकों की या कर्म छोड़नेवाले संन्यासमार्गियों की नहीं है। गीता को इस दृष्टि को स्वीकार कर लेने पर पहले तो यही कहना पड़ता है, कि “ कर्मशून्यता के अर्थ में अकर्म' इस जगत में कहीं भी नहीं रह सकता अथवा कोई भी मनुष्य कमी कर्मशून्य नहीं हो सकता (गी. ३.५; १८. ११); क्योंकि सोना, उठना-बैठना और जीवित रहना तक किसी से भी छुट नहीं जाता। और यदि कर्मशून्यता होना सम्भव नहीं है तो यह निश्चय करना पड़ता है, कि अकर्म कहें किसे । इसके लिये गीता का यह उत्तर है, कि कर्म का मतलब निरी क्रियान समझ कर उससे होनेवाले शुभ-अशुभ आदि परिणामों का विचार करके कर्म का कर्मच या अकर्मत्व निश्चित करो । यदि सृष्टि के मानी ही कर्म है, तो मनुष्य जब तक सृष्टि में है, तब तक उससे कर्म नहीं छूटते । अतः कर्म और अकर्म का जो विचार करना हो, वह इतनी ही दृष्टि से करना चाहिये, कि मनुष्य को वह कर्म कहाँ तक वद करेगा। करने पर भी जो फर्म इमें बद्ध नहीं करता, उसके विषय में कहना चाहिये, कि उसका फमत्व अर्थात् बन्धकत्व नष्ट हो गया; और यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्व अर्थात् कर्मव इस प्रकार नष्ट हो जाय तो फिर वह कर्म "अकर्म ' ही हुमा । अकर्म का प्रचलित सांसारिक अर्थ कर्मशून्यता ठीक है। परन्तु शास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर उसका यहाँ मेल नहीं मिलता । क्योंकि हम देखते हैं, कि चुपचाप बैठना अयाद कर्म न करना भी कई बार कर्म ही जाता है। उदाहरणार्थ, अपने मा-बाप को कोई मारता-पीटता हो, तो उसको न रोक कर चुप्पी मारे बैठा रहना, उस समय व्यावहारिक दृष्टि से अकर्म मर्याद