पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७२३

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१८४ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । t एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मगो मुझे। कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानवं शात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥ श्रेयान्द्रव्यमयाद्यशाक्षानयज्ञः परंतप । सर्व कर्माखिलं पार्थ माने परिसमाप्यते ॥३३॥ करना पड़ेगा, कि " अब तक प्रत्येक मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता के कुछ अंश का मी यज्ञ न करे, तब तक इस लोक के व्यवहार चल नहीं सकते " । इस प्रकार के व्यापक और विस्तृत अर्थ से जब यह निश्चय हो चुकी कि यज्ञ ही सारी समाजरचना का माधार है तब कहना नहीं होगा कि केवल कचंन्य की एष्टि से 'यज्ञ' करना जब तक प्रत्येक मनुष्य न सीखेगा, तब तक समाज की व्यवस्था ठीक न रहेगी।] (३२) इस प्रकार भांति भाँति के यज्ञ ब्रह्म के (६) मुख में जारी है। यह जानो कि, वे संब कर्म से निप्पन्न होते हैं। यह ज्ञान हो जाने से व मुक्त हो जायगा। [ज्योतिष्टोम भादि द्रव्यमय प्रौतयज्ञ भग्नि में हवन करके किये जाते हैं और शास्त्र में कहा है, कि देवताओं का मुख अग्नि है। इस कारण ये यज्ञ डन देवंतानों को मिल जाते हैं।परन्तु यदि कोई शंका करे, कि देवताओं के मुख- भनि में टक लावणिक यज्ञ नहीं होते अतः इन लाक्षणिक यहॉ से श्रेयामाप्ति होगी कैसे तो उसे दूर करने के लिये कहा है, कि ये यज्ञ साक्षात् ब्रह्म के ही मुख में होते हैं। दूसरे चरण का भावार्य यह है कि जिस पुरुष ने यज्ञविधि के इस व्यापक स्वरूप को केवल मीमांसकों के संकुचित भयं को ही नहीं जान लिया, उसकी बुद्धि संकुचित नहीं रहती, किन्तु वह ब्रह्म के स्वरूप को पहचानने का अधिकारी होजाता है। अव बतलाते हैं कि इन सय यज्ञों में श्रेष्ट यज्ञ कौन है-] (३३) हे परन्तप ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ ग्रेट है क्योंकि हे पार्थ! सय प्रकार के समस्त कमों का पर्यवसान ज्ञान में होता है। [गीता में ज्ञानयज्ञ' शब्द दो बार आगे भी आया है (गी.१.१५ और ८७.)हम बो द्रव्यमय यज्ञ करते हैं, वह परमेश्वर की प्राप्ति के लिये किया करते हैं । परन्तु परमेश्वर की प्राप्ति उसके स्वरूप का ज्ञान हुए विना नहीं होती । अतएव परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर, उस ज्ञान के अनुसार आचरण करके परमेश्वर की प्राप्ति कर लेने के इस मार्ग या साधन को 'ज्ञानमय कहते हैं। यह यज्ञ मानस और बुद्धिसाध्य है, अतः द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा इसकी योग्यता अधिक समझी जाती है । मोक्षशाब में ज्ञानयज्ञ का यह ज्ञान ही मुख्य है और इसी ज्ञान से सव कर्मों का क्ष्य हो जाता है । कुछ भी हो, गीता का यह स्थिर सिदान्त है, कि अन्त में परमेश्वर का ज्ञान होना चाहिये, बिना ज्ञान के मोक्ष नहीं मिलता। तथापि कर्म का पर्यवसान ज्ञान में होता है। इस वचन का यह अर्थ नहीं है, किज्ञान के पश्चात् को को छोड़ चाहिये-यह वातगीतारहस्य के दसवें और म्यारहवें प्रकरण में विस्तारपूर्वक