पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/७९१

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७५२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मनावा मानसा जाता येयां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६॥ श्राज-कज्ञ के वैवस्वत अथवा जिस मन्वन्तर में गीता कही गई, उसले-पहले कि मन्वन्तरवाले सप्तर्षियों को वतनाने की यहाँ कोई भावश्यकता नहीं है। अतः वर्तमान मन्वन्तर के ही सपियों को लेना चाहिये । महाभारत-शान्तिपर्व के नारायणीयोपाख्यान में इनके ये नाम है:-मरीचि, अनिरस्, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ (ममा. शां. ३३५, २८, २९, ३४०, ६४ और ६५); और हमारे मत से यहाँ पर ही विवक्षित है। क्योंकि गीता में नारायणीय अथवा मागवत-धर्म ही विधिसहित प्रतिपाद्य है (देखो गीतार. पृ.८-)। तथापि यहाँ इतना बतला देना आवश्यक ई जिमरीविनादि सप्तर्षियों के रत नानों में कहीं कहीं अङ्गिर के बझं नृगु का नाम पाया जाता है और कुछ स्यानों पर तो ऐसा वर्णन है कि कश्यर, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, नम. दिग्नि और वशिष्ठ वर्तमान युग के सप्तर्षि हैं (विष्णु. ३.१.३२ और ३३१ मत्स्य. ६.२७ और म मना. अनु. ६३. २१) । मरीचि आदि उपर लिखे हुए सात अपियों में ही भृगु और दक्ष को मिला कर विष्णुपुराण (. [७.५, ६) में नौ मानस पुत्रों का और इन्हीं में नारद को भी जोड़ कर मनु- स्मृति में ब्रह्मदेव के दप्त मानस पुत्रों का वर्णन है (मनु. १.३४, ३५) । इन मरीचि आदि शब्दों की घुलत्ति भारत में की गई है (ममा. अनु.५) । परन्तु हमें अभी इतना ही देखना है कि सात महर्षि कौन कौन है, इस कारण इन नौ-दस मानस पुत्रों का, अथवा इन नामों की व्युत्पत्ति का विचार काने की यहाँ श्रावश्यकता नहीं है । प्रगट है, कि 'पहले के इस पद का अर्थ । पूर्व मन्वन्तर के सात महर्षेि 'लगा नहीं सकते। अब देखना है। 'पहले के चार' इन शब्दों को मनु का विशेषण मान कर कई एजे ने जो अर्थ किश है, वह कहाँ तक युक्तिनङ्गव है। कुल चौदह मन्वन्तर हैं और इनके चौदह मतुइनमें सात सान के दो वर्ग हैं। पहले सातों के नाम स्वायम्भुव, स्वारी- चिप, औचमी, तामल, रैवत, चाक्षुय और वैवस्वत हैं, तथा ये स्वायम्मुत्र आदि मनु कहे जाते हैं (मनु.. ६र और ६३) । इनमें से छः मनु हो चुके और आज कज्ञ साता अर्थात् वैवस्वत मनु चल रहा है। इसके समाप्त होने पर आगे जो सात मनु श्रावगे (भ.ग. ८.१३.७) नो सावर्णि मनु कहते हैं उनक नाम लावाण, दवरावणे, ब्रह्मपावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देव- सावर्णि, और इन्द्रसावर्णि हैं (विगु.३.२, मागवत. ८.३ परिवंश १.७) इस प्रकार, प्रत्येक मनु के सात-सात होने पर, कोई कारण नहीं बनलाया जा सिकता कि किसी भी वर्ग के पहले के 'चार' ही नीता में क्यों विवक्षित होंगे। ब्रह्माण्ड पुराण (१.५) में कया है कि लावार्ण मनुओं में पहले मनु को छोड़ कर अगले चार अर्थात् दन ब्रह्म-धर्म-,और रुद्व-सावाण एक ही समय में उत्पन्न हुए; और इसी आधार से कुछ लोग कहते हैं कि यही चार सावणिं न्न