पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। सौत्रामणी यज्ञ की योजना की है। परन्तु, तिस पर भी निवृत्ति अर्थात् निष्काम शाचरण इष्ट है। यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जब निवृत्ति' शब्द का संबंध पञ्चम्यन्त पद के साथ होता है तब उसका अर्थ "अमुक वस्तु से निवृति अर्थात् अमुक कर्म का सर्वथा त्याग" हुआ करता है तो मी कर्म- योग में " निवृत्ति " विशेषण कर्म ही के लिये उपयुक्त हुआ है, इसलिये 'निवृत्त कर्म' का अर्थ "निष्काम बुद्धि से किया जानेवाला कर्म होता है।यही अर्थ मनुस्मृत्ति और भागवतपुराण में स्पष्ट रीतिसे पाया जाता है (मनु. १२.८९;भाग३१.१०.१और ७.१५.४७) । क्रोध के विषय में किरातकाव्य में (१.३३) भारवि का कथन है:- अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहादेन न विद्विषादरः " जिस मनुष्य को, अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वैप दोनों वरावर हैं"।क्षात्रधर्म के अनुसार देखाजाय तो विदुला ने यही कहा है:- एतावानेव पुरुषो यदमाँ यदक्षमी । क्षमावानिरमर्पश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान् ॥ "जिस मनुष्य को ( अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता वही पुरुप कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है" (ममा. ३. १३२. ३३)। इस बात का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है कि इस जगत् के व्यवहार के लिये न तो सदा तेज या क्रोध ही उपयोगी है और न क्षमा यही बात लोम के विषय में भी कही जा सकती है क्योंकि संन्यासी को भी मोक्ष की इच्छा होती ही है ! व्यासजी ने महाभारत में अनेक स्थानों पर मिन मित्र यात्रों के द्वारायहप्रति- पादन किया है किशूरता, धैर्य, दया,शील, मिन्नता,समता आदि सव सद्गुण, अपने अपने विरुद्ध गुणों के अतिरिक देश-काल चादि ले मर्यादित हैं। यह नहीं समझाना चाहिये कि कोई एक ही सद्गुण सभी समय शोमा देता है। भर्तृहरि काकथन है:- विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । " संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय (अर्थात् जव शासन करने का सामर्थ्य हो तब ) क्षमा, समा में वक्ता और युद्ध में शूरता शोमा देती है" (नीति.६३) शांति के समय 'उत्तर' के समान वक वक करनेवाले पुरुष कुछ कम नहीं हैं। घर बैठे बैठे अपनी स्त्री की नथनी में से तीर चलानेवाले कर्मवार वहुतेरे होंगे; उनमें से रणभूमि पर धनुर्धर कहलानेवाला एक-आध ही देख पड़ता है ! धैर्य आदि सद्गुण अपर लिखे लमय पर ही, शोमा देते हैं। इतना ही नहीं; किन्तु ऐसे मौकों के बिना उनकी सच्ची परीक्षा भी नहीं होती । सुख के साथी तो बहुतेरे हुआ करते हैं परन्तु "निझपप्रावा तु तेपो विपत्–विपत्ति ही उन की परीक्षा की सच्ची कसौटी है। 'प्रसंग' शब्द ही में देश-काल के अतिरिक पात्र मादि वातों का भी समावेश हो जाता है। समता से बढ़ कर कोई भी गुण श्रेष्ठ