पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८२६

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गांता, अनुवाद और टिप्पणी- १३ अध्याय । S इंति क्षेत्र तथा ज्ञानं शेयंचोक्तं समासतः। मद्भक्त एतद्विशाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १८ ॥ " सय इन्द्रियों के गुणों का भास होनेवाला, तथापि सब इन्द्रियों से विरहित " धिताधतर उपनिषद (३. १७) में ज्यों का त्यों है। एवं " दूर होने पर भी समीप" ये शन्द ईशावास्य (५) और मुण्डक (३.१.७) उपनिषदों में पाये जाते हैं। ऐसे ही " तेज का तेज " ये शब्द चूहदारण्यक (४. ४. १६) के हैं, और "अन्धकार से परे का "ये शब्द वेताधतर (३.८) के हैं। इसी भाँति यह वर्णन कि "जो न तो सत् कहा जाता है और न असत कहा जाता है " भग्वेद के " नासदासीव नो सदासीत् " इस बस-विषयक प्रसिद्ध सूक को (क्र.१०. १२९) लक्ष्य कर किया गया है। सत और असत् ' शब्दों के अर्थों का विचार गीतारहस्य पृ. २५३-२४४ में विस्तार सहित किया गया है और फिर गीता ६. १वे श्लोक की टिप्पणी में भी किया गया है। गीता 2. 18 में कहा ई कि 'सत्' और 'असत् ' मैं ही हूँ। प्रय यह वर्णन विरुद्ध सा जंचता है कि सध्या माम न सत् है और न असत् । परन्तु वास्तव में यह विरोध सवा नहीं है। क्योंकि व्यक्त (चर) सृष्टि और 'अव्यक्त' (अक्षर) सृष्टि, ये दोनों यपि परमेश्वर के ही स्वरूप हैं, तथापि सधा परमेश्वरतत्व इन दोनों से परे अर्यात पूर्णतया अज्ञेय है। यह सिद्धान्त गीता में ही पहले भूतभृश च भूतस्थः' (गी.६.५) में और भागे फिर (१५. १६, १७) पुरुषोत्तम लक्षण में स्पष्टतया यतलाया गया है। निर्गुण ग्रह किसे कहते हैं, और जगत में रह कर भी वह जगव से याहर कैसे है अथवा वह ' विभक्त ' अर्थात् नानारूपात्मक देख पड़ने पर भी मूल में प्रविभक्त अर्थात एक ही कैसे है, इत्यादि प्रमों का विचार गीता- रहस्य के नवें प्रकरण में (पृ. २०८ से मागे) किया जा चुका है। सोलहवें श्लोक में विभक्तमिव : का अनुवाद यह है-"मानों विभक्त हुआ सा देख पड़ता 12"यह 'इव' शब्द उपनिपदों में, अनेक बार इसी अर्थ में आया है कि जगत् {का नानास्व भ्रान्तिकारक है और एकत्व ही सत्य है। उदाहरणार्थ “ द्वैतमिव भयति, "" य इ नानेव पश्यति " इत्यादि (वृ. २. १. १४, ४. १. 10 ४.३. ७)भितएव प्रगट है कि गीता में यह अद्वैत सिद्धान्त ही प्रतिपाय है कि, नाना नाम-रूपात्मक माया भ्रम ऐ और उसमें भविभक्त से रहनेवाला ब्राही सत्य है।गीता ८.२० में फिर यतलाया है कि अविभक विभक्तेषु' अर्थात नानात्व में एकत्व देखना साविक ज्ञान का लक्षण है। गीतारहस्य के अध्यात्म प्रकरण में वर्णन है कि यही सास्तिक ज्ञान ग्राम है। देखो गतिार. पृ. २१४, २१५; और पृ. १३१ -१३२] (१८) इस प्रकार संक्षेप से बतला दिया कि क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय किसे कहते हैं। मेरा भक्त इसे जान कर, मेरे स्वरूप को पाता है।