पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८४५

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८०६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चंद्रमसि यच्चानौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२॥ गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। पुष्णामि चौपधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।१३।। अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाथितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥१४॥ सर्वस्य चाहं हदि संनिविष्टो मत्तःस्मृतिनिमपोहनं च। वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदांतकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ १५॥ [१०वें और वें श्लोक में ज्ञान-चतु या कर्म-योग-मार्ग से आत्मज्ञान की प्राप्ति का वर्णन कर जीव की सत्क्रान्ति का वर्णन पूरा किया है। पिछले सातवें अध्याय में जैसा वर्णन किया गया है (देखो गी. ७. ८ १२), वैसा ही अब श्रात्मा की सर्वव्यापकता का थोड़ा सा वर्गान प्रस्तावना के ढंग पर करके सोलहवें श्लोक से पुरुषोत्तम स्वरूप वर्णन किया है। (१२) जो तेज सूर्य में रह कर सारे जगत् को प्रकाशित करता है, जो तेज चन्द्रमा और अग्नि में है। उसे मेरा ही तेज लमझा (9) इसी प्रकार पृथ्वी में प्रवेश कर मैं ही (सब) भूतों को अपने तेज से धारण करता हूँ, और रसात्मक सोम (चन्द्रमा) हो कर सव ओषधियों का अर्थात् वनस्पतियों का पोपण करता हूँ। [सोम शब्द के सोमवल्ली' और 'चन्द्र अर्थ हैं। तया वेदों में वर्णन है कि चन्द्र जिस प्रकार जलात्मक, अंशुमान् और शुन्न है, उसी प्रकार सोम- वल्ली भी है. दोनों ही को वनस्पतियों का राजा' कहा है । तथापि पूर्वापर सन्दर्भ से यहाँ चन्द्र ही विवक्षित है। इस श्लोक में यह कह कर, कि चन्द्र का तेज मैं ही हूँ. फिर इसी श्लोक में बतलाया है कि वनस्पतियों को पोषण करने का चन्द्र का जो गुण है, वह भी मैं ही हूँ। अन्य स्थानों में भी ऐसे वर्णन हैं कि जलमय होने से चन्द्र में यह गुण है, इसी कारण वनस्पतियों की बाढ़ होती है। (१४) मैं वैश्वानर रूप अप्ति होकर प्राणियों की देहों में रहता हूँ, और प्राण एवं अपान से युक्त होकर (भक्ष्य, चोष्य, लेझ और पेय) चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ। (१५) इसी प्रकार मैं सव के हृदय में अधिष्ठित हूँ स्मृति और ज्ञान एवं अपोहन अर्थात् उनका नाश मुझसे ही होता है तथा सब वेदों से जानने योग्य मैं ही हूँ। वेदान्त का कत्ती और वेद जाननेवाला मी मैं ही हूँ। i [ इस श्लोक का दूसरा चरण कैवल्य उपनिषद् (२. ३) में है, उसमें " वैदैश्च सर्वेः" के स्थान में "वेदैरनेकैः" इतना ही पाठभंद है । तब जिन्होंने गीता-काल में 'वेनान्त' शब्द का प्रचलित होना न मान कर ऐसी दलीलें की हैं कि या तो यह श्लोक ही प्रक्षिप्त होगा या इसके 'वेदान्तशब्द का कुछ