पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५१

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८१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥ ८॥ मि-प्रतिष्ठ भी कहते हैं, अर्थात् इसकी न प्रतिष्ठा है और न आधार । यहाँ शश हो सकती है कि इस प्रकार अध्यात्मशास्त्र में प्रतिपादित अग्यक परब्रह्म यदि मासुरी लोगों को सम्मत न हो, तो उन्हें भक्ति-मार्ग का व्यक्त ईश्वर मान्य होगा। इसी से बनीधर (अन्+ईश्वर) पद का प्रयोग करके कह दिया है कि आसुरी लोग जगत् में ईश्वर को भी नहीं मानते । इस प्रकार जगद का कोई भूल भाधार न मानने से उपनिषदों में वर्णित यह सृष्टयुत्पत्ति-क्रम छोड़ देना पड़ता है कि "आत्मन भाकाशः सम्भूतः । आकाशादायुः। वायोराप्तिः । अप्रापः । अद्यः पृथिवी । पृथिव्या ओपधयः । औषधीभ्यः अन्नं । अन्नात्पुरुषः।" (ते. २.१); और सांख्यशास्त्रोक्त इस सृष्टयुत्पत्ति-क्रम को भी छोड़ देना पड़ता है कि प्रकृति और पुरुष, ये दो स्वतन्त्र मूल तस हैं एवं सत्व, रज और तम गुणों के धन्योन्य आश्रय से अर्थात् परस्पर मित्रण से सब व्यक पदार्थ उत्पन्न हुए हैं। क्योंकि यदि इस शृंखला या परम्परा को मान लें, तो दृश्य-सृष्टि के पदाथों से परे इस जगत् का कुछ न कुछ मूल तत्व मानना पड़ेगा। इसी से आसुरी लोग जगत् के पदायों को अ-परस्पर-सम्भूत मानते हैं अर्थात् वे यह नहीं मानते कि ये पदार्य एक दूसरे से किसी क्रम से उत्पन्न हुए हैं। जगत् की रचना के सम्बन्ध में एक बार ऐसी समझ हो जाने पर मनुष्य प्राणी ही प्रधान निश्चित हो जाता है और फिर यह विचार आप ही आप हो जाता है कि मनुष्य की काम-वासना को तृप्त करने के लिये ही जगत् के सारे पदार्थ वने हैं, उनका और कुछ मी उपयोग नहीं है। और यही अर्थ इस श्लोक के अन्त में "क्रिमन्यकामहेतुकम् " काम को छोड़ उसका और क्या हेतु होगा?-इन शब्दों से, एवं आगे के श्लोकों में भी, वर्णित है। कुछ टीकाकार " अपरस्परसम्भूत "पद का अन्वय " किमन्यत् " से लगा कर यह अर्थ करते हैं कि " क्या ऐसा भी कुछ देख पड़ता है जो परस्पर अर्याद त्रिी-पुरुष के संयोग से उत्पन्न न हुआ हो.? नहीं; और जब ऐसा पदार्थ ही नहीं देख पड़ता तब यह जगत् कामहेतुक अर्थात् स्त्री-पुरुष की कामेच्छा से ही निर्मित हुआ है"। एवं कुछ लोग " अपरश्च परश्च " अपरस्परौ ऐसा अद्भुत विग्रह करके इन पदों का यह भर्थ लगाया करते हैं कि " "अपरस्पर' ही स्त्री-पुरुष हैं, इन्हीं से यह जगत् उत्पन्न हुमा है, इसलिये स्त्री-पुरुषों का काम ही इसका हेतु है और कोई कारण नहीं है। परन्तु यह अन्वय सरल नहीं है और अपरश्च परश्च का समास · अपर-पर' होगा; बीच में सकार न आने पावेगा । इसके अतिरिक्त भ-सत्य, अ-प्रतिष्ठ आदि पहले पदों को देखने से तो यही ज्ञात होता है कि भ-परस्परसम्भूत नन्समास ही होना चाहिये और फिर कहना पड़ता है कि सौख्यशास्त्र में परस्सरसम्भूत' शब्द से जो 'गुणों से गुणों का अन्योन्य जनन ' वर्णित है, वही यहाँ विवदित है (देखो गीतारहस्य